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शब्द और अर्थ की समस्या/331
आवे तो भी शत्रु नहीं होगा । 'उवई' <प्राकृत-अवहट्ठ घातु, जिसका अर्थ पास आना है ।।
इस विवेचन से एक ओर तो यह स्पष्ट होता है कि 'मिलित शब्दावली' में से शब्दरूप बनाते समय अक्षरों को गलत जोड़ देने से गलत शब्द बन जाता है । भेषकहन्ता । करन्ता, में से 'भेप्रक' बनाने में 'कहन्ता' या करन्ता के 'क' को भेअ से जोड़कर 'भेप्रक' बना दिया है, यह गलत शब्द बन गया । इससे अर्थ गलत हो गया, उलझ गया और समस्या बना रह गया।
दूसरी यह बात विदित होती है कि एक अपरिचित शब्द 'उवह' पूर्व टीकाकारों ने ग्रहण नहीं किया। यह प्राकृत-अवहठ का रूपान्तर था ।
अतः अर्थ-समस्या के दो कारण ये प्रकट हुए : 1. मिलित शब्दावली में से ठीक शब्द-रूप का न बनना, और 2. किसी अपरिचित शब्द को परिचित शब्दों की कोटि में लाने की असमर्थता ।
डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी ने 'सन्देश-रासक' के समस्यार्थक स्थलों पर प्रकाश डालते हुए 'पारद्द' शब्द के सम्बन्ध में बताया है कि 'पारद' शब्द का यह अर्थ (अर्थात् जुलाहा) अज्ञातपूर्व अवश्य है । देशीनाममाला कोश में उन्हें यह शब्द नहीं मिला, हाँ, 'पारद्ध' मिला और 'पारद्ध' अग्र समीकरण से 'पारद्द' हो सकता है । 'पारद्ध' के अर्थ कोश में दिये हैं : प्रबद्ध, सतृष्ण और गृह में आया हुआ । तन्तुवाय या 'जुलाहा' अर्थ नहीं हैं । उधर टीकाकारों ने इसका अर्थ 'जुलाहा' किया है-आगे कवि ने अपने को कोरिय या कोरिया लिखा भी है, अतः जुलाहा तो वह था । इसलिए डॉ० द्विवेदी ने यह निर्देश भी दिया है कि "किसी शब्द के अन्य ग्रन्थों में न मिलने मात्र से उसके अर्थ के विषय में शंका उठाना उचित नहीं है । सम्भव है किसी अधिक जानकार को वह शब्द अन्यत्र मिल भी जाय ।"
इस कथन से यह तो सिद्ध हो गया कि 'पारद्द' शब्द पक्की तरह से अपरिचित शब्द है, रूप में भी और अर्थ में भी, वरन् उसके अर्थ का स्रोत केवल टीकाएँ हैं । इन टीकात्रों ने यह अर्थ पारद्द का किस आधार पर किया, किस प्रमाण से इसे सिद्ध किया, यह भी हमें विदित नहीं।
अतः कहीं-कहीं अर्थ-समस्या उक्त प्रकार से एक नया रूप ले लेती है। शब्द अपरिचित अर्थ परिचित किन्तु अप्रामाणिक आधार पर जिसका स्रोत तक ज्ञात नहीं । अर्थ परिचित है क्योंकि ग्रन्थ की टीका में मिल जाता है । टीका का स्रोत क्या है यह अविदित है ।
इसी पद्य में एक और प्रकार से अर्थसमस्या पर विचार किया गया है । यह है 'मी र से रण (नं) स्स' पर व्याकरण की दृष्टि से विचार । पद्य में 'मी र से ग स्स' शब्द है, टीकाकारों ने 'मी र से नाख्य' रूप में इसकी ब्याख्या की है । अर्थ की यह समस्या डॉ० द्विवेदी ने यो प्रस्तुत की है।
'पारदो मीरसेरणस्स' का अर्थ 'पारदो मीरसेनाख्यः' नहीं हो सकता । 'मीरसेणस्स' षष्ठयन्त पद है, उसकी ब्याख्या 'मीर सेनाख्यः' प्रथमांत पद के रूप में नहीं होनी चाहिये ।'
1. अग्रवाल, वासुदेवशरण (डॉ.)-कोतिलता, पृ. 19-20 । 2 द्विवेदी, हजारीप्रसाद-संदेश रासक, पृ. 11।
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