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320/पाण्डुलिपि-विज्ञान
मा
'लुबधो' मिलेगा, लुब्धो के लिए । 'चन्दचरित्र' (पन्ना 79 पूर्व)
(ई) युक्ताक्षर-विकृति-युक्त शब्द-शब्द परस्पर विभक्त न होकर युक्त हों और तब उनमें से किसी में भी यदि कोई विकार आ जाता है तो वे ऐसे ही वर्ग में आयेंगे, यथा'कीतिलता' द्वितीय पत्लव छं. 7 में 'महाजन्हि' का एक पाठ 'महजन्हि' मिलता है । यह विकृति हमारे इसी वर्ग के शब्दों में आयेगी ।
इसी सम्बन्ध में प्रावट्टवट्ट 'विवट्टवट्ट' पर 'कीतिलता' के संजीवनी भाष्य में डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल ने जो टिप्पणी दी है वह इस प्रकार है :
प्रावट्ट वट्ट विवट्ट-श्री बाबूरामजी के संस्करण में 'अति बहुत भांति विवट्ट वट्टहि' पाठ है और पाठ टिप्पणी में वट्ट पाठान्तर दिया है । वस्तुतः यहाँ पाठ-संशोधन की समस्या इस प्रकार है। मूल संस्कृत शब्द आवर्त-विवर्त के प्राकृत में आवत्त-विवत्त और पावट्ट विवट्ट ये दो रूप होते हैं । (पासद्द 152, 998, 999) । संयोग से विद्यापति ने 'कीर्तिलता' में तीनों शब्द-रूपों का प्रयोग किया है :
1-आवर्त विवर्त रोलहों, नअर नहिं नर समुद्रो (2 1 112) 2-पावत्त विवत्ते पन परिवत्ते जुग परिवत्तन माना (4 1 114)
इस प्रकार यह लगभग निश्चित ज्ञात होता है कि यहाँ प्रति बहुत वट्ट का मूल पाठ प्रावट्ट वट्ट ही था । विवट्ट वट्ट तो स्पष्ट ही है ।
'पावट्ट वट्ट विवट्ट वट्ट मे युक्ताक्षरों की विकृति की लीला स्पष्ट है । कीर्तिलता में ही एक स्थान है पर यह चरण है :
पाइग्ग पत्र भरे भउं पल्लानिन उं तुरंग' यहाँ 'पाइग्गा' शब्द 'पायग्गाट्ट का युक्ताक्षर विकृत शब्द हैं 'गा' का 'ग्गा' कर दिया गया है ।
इसी प्रकार 'ढोला मारू रा दूहा' 16 में 'ऊलंबे सिर हथ्थड़ा' इस दोहे के 'ऊलंबी' शब्द का एक पाठ 'उक्कंबी भी हैं , इसमें 'ल' को क 'युक्ताक्षर' मानकर लिखा गया है, अतः यह भी इस वर्ग का शब्द रूप है।
'चन्दचरित्र' की पांडुलिपि में 83वें पृष्ठ पर ऊपर से दूसरी पंक्ति में 'सज्जन उद्धरज्यो जी' को इस रूप में लिखा गया है।
उद्धरज्यजी
इसमें युक्ताक्षर 'ज्य' को जिस रूप में लिखा गया है उस रूप को विकृति माना जा सकता है।
कवि हरचरणदास की 'कवि-प्रिया भरण' टीका है केशव की कवि प्रिया पर है उसकी एक पांडुलिपि 1902 की प्रतिलिपि है। उसमें 149वें पृष्ठ पर कवि ने अपना जन्म संवत् दिया है । प्रतिलिपिकार ने उसे यों लिखा है :
7 सत्रहसो सटि मही वकि को जन्म विचारि ।
1. अग्रवाल, वासुदेवशरण (डॉ.)-कीतिलता. पृ० 60-61 । 2. मनोहर, शम्भूसिंह-ढोला मारू रा दूहा, पृ. 156।
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