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युक्त अक्षर - विकृत रूप' शब्द रेखांकित है । यह है छ्यासठ = 66 ।
इस पृष्ठ से आगे के पन्ने में कृष्ण से अपना सम्बन्ध बताने के लिए लिखा है कि मुनि सांडिल्ल महान ।
" पूरोहित श्रीनन्द के
हैं तिनके हम गोत मैं मोहन मो जजमान ।।16।। "
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शब्द और अर्थ की समस्या / 321
यहाँ 'सांडिल्ल' में 'युक्ताक्षर विकृति' स्पष्ट है, शांडिल्य 'सांडिल्ल' हो गये हैं । यहाँ भाषा विज्ञान की दृष्टि से इसकी व्याख्या की जा सकती है, यह और बात है । अग्रसमीकरण से ल्य का 'य' 'ल' में समीकृत हो गया है, पर युक्ताक्षर की दृष्टि से विकति भी विद्यमान है, इसीलिए इसे हम इस वर्ग में रखते हैं ।
( उ ) घसीटाक्षर विकृति युक्त शब्द
कभी-कभी कोई पांडुलिपि 'घसीट' में लिखी जाती है । त्वरा में लिखने से लेख घसीट में लिख जाता है । घसीट में अक्षर विकृत होते ही हैं । चिठ्ठी-पत्रियों में, सरकारी दस्तावेजों में, दफ्तरी टीपों में, ऐसे ही अन्य क्षेत्रों में घसीट में लिखना नियम ही समझना चाहिये । अधिकारी व्यक्ति त्वरा में लिखता है और उसे अभ्यास ही ऐसा हो गया होता है कि उसका लेखन घसीट में ही हो जाता है । इसी कारण कितने ही विभागों में घसीट पढ़ने का भी अभ्यास कराया जाता है और इस विषय में परीक्षाएं भी ली जाती हैं । स्पष्ट है कि घसीटाक्षरों को अभ्यास के द्वारा ही पढ़ा जा सकता है । अभ्यास में यह आवश्यक होता है कि घसीट लेखक की लेखन प्रवृत्ति को भली प्रकार समझ लिया जाय । उससे घसीट पढ़ने में सुविधा होती है ।
प्र.प्र.स
(35) घसीट की भाँति ही व्यक्ति-वैशिष्ट्य की दृष्टि से अलंकरण - निर्भर - विकृति-युक्त शब्द भी कभी-कभी किन्हीं पांडुलिपियों में मिल जाते हैं । अलंकरण युक्त अक्षर को भी पहले समझने पढ़ने में कठिनाई होती है ।
'अलंकरण' का अर्थ है किसी भी 'अक्षर' को उसके स्वाभाविक रूप में सन्तुलित प्रकार से न लिखकर कुछ कलामय या अनोखा रूप देकर लिखना, उदाहरणार्थ : 'प' | यह 'प' का सन्तुलित रूप है: अब इसको लिपिकार कितने ही रूपों में लिख सकता है, अलंकरण की प्रवृत्ति से अक्षररूपों के साथ शब्द-रूप भी बदलते हैं हम अलंकर की प्रवृत्ति को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में एक अक्षर के आधार पर देख सकते हैं को ले सकते हैं । देवनागरी में 'अलंकरण' की प्रवृत्ति ई० पू०
।
।
इसके लिए 'अ' अक्षर
की पहली शताब्दी से ही
दृष्टिगोचर होने लगती है । इसे शताब्दी-क्रम से नीचे के फलक से समझा जा सकता है ।
अशोक कालीन
ई०
पू० पहिली मथुरा ई० पहिली दूसरी श० पभोसा नासिक
मथुरा
लेखा
भु
४
त
४६
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