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1. मखदूम
2. नरावइ
3. दोष
4. हाथ
5. ददस
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6. दस
: दिखाता है ।
7. गार : नरक के जीव, प्रेतात्माएँ ।
: भूत प्रेत साधक मुसलमानी धर्म-गुरु
: प्रसविया -- अर्थात् जो नरक के जीवों या प्रेतात्माओं का अधिपति
हो ।
कीर्तिलता में एक पंक्ति है :
" सराफे सराहे भरे बे वि बाजू || "
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: यातना देना ।
: शीघ्र, जल्दी ।
: हदस, (अरबी) – प्रेतात्माओं को अंगूठी के नग में दिखाने की प्रक्रिया |
शब्द और अर्थ की समस्या / 325
1. वही, पृ० 95 2. वही, पृ० 145
"तोलन्ति हेरा लसूला पेप्राजू" । अर्थ करने वालों ने इसमें विशिष्टार्थक शब्दों को न पहचान सकने के कारण सराफे में लहसुन व प्याज और हल्दी तुलवा दी है । ठीक है, लला का ग्रर्थ लहसुन स्पष्ट है । प्याज का अर्थ भी स्पष्ट है । एक ने 'हेरा' को हलदी मान लिया । किंचित् ध्यान देने यह विदित हो जाता है कि एक इन अर्थों में 'प्रसंग' पर ध्यान नहीं रखा गया । वर्णन सराफे का है । सराफे में जौहरी बैठते हैं' । वहाँ हलदी,
लहसुन, प्याज जैसे खाने में काम आने वाले पदार्थ कहाँ ? तो 'प्रसंग' पर ध्यान नहीं दिया गया । दूसरे, इन शब्दों के विशिष्ट अर्थ पर भी ध्यान नहीं गया । लसूला का अर्थ लहसुनिया नाम का रत्न, 'पेश्राजू' का अर्थ 'फीरोजा' नाम का रत्न, और हेरा 'हीरा' हो सकता है, इस पर ध्यान नहीं गया, जो जाना चाहिये था । इसी प्रकार 'कीर्तिलता 2 में ही एक अन्य चरण है :
"चतुस्सम पल्वल करो परमार्थ पुच्छहि सियान" ।
इसमें 'चतुस्सम' शब्द है । किसी विद्वान के द्वारा इसमें आये 'चतुस्तम' का सामान्य अर्थ 'चौकोन' या 'चोकोर' कर लिया गया । वस्तुत: यह विशिष्टार्थक शब्द है । इसे लेकर हस्तलेखों के पाठों में भी गड़बड़झाला हुई है । वह गड़बड़झाला क्या है और इसका यथार्थ रूप और अर्थ क्या है, यह डॉ० किशोरीलाल के शब्दों में पढ़िये :
"डाँ० वासुदेवशरण अग्रवाल के अनुसार जायसी - कृत पद्मावत में प्राप्त 'चतुरसम' पाठ को न समझने के कारण इसका पाठ 'चित्रसम' किया गया । फारसी में चित्रसम और 'चतुरसम' एक-सा पढ़ा जा सकता है, अतः 'चतुरसम' पाठ सम्पादक को क्लिष्ट लगा और 'चित्रसम' सरल । जायसी के मान्य विद्वान् आचार्य पं० रामचन्द्र शुक्ल ने 'चित्रसम' पाठ ही माना। यही नहीं कहीं-कहीं उन्होंने 'चित्रसब' पाठ भी किया है—
करिस्नान चित्र सब सारहूँ — जायसी ग्रन्थावली पृ० 121 || शुद्ध पाठ 'चतुरसम' ही है । इसे डॉ० अग्रवाल ने पूर्ववर्ती रचनाओं से प्रमाणित भी किया है, यथा-जायसी से दो शताब्दी पूर्व के 'वर्ण रत्नाकार' में भी चतुःसम का प्रयोग मिला है -- ' चतुःसम हथ लिये
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