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काल निर्धारण/307
पड़ती है तो वह उसकी पूर्ति करने के लिए अपनी ओर से कुछ प्रसंग बढ़ा देता है, और इसका उल्लेख भी वह कहीं या पुष्पिका में कर देता है । गोयम कवि ने उस प्रसंग का उल्लेख कर दिया है, जो उसने जोड़े हैं, अतः उसके कृतित्त्व को 'चतुर्भुजदास' के कृतित्त्व से अलग किया जा सकता है, और यह निर्देश किया जा सकता है कि किस अंश का कवि कौन है।
पर 'प्रक्षेपों' के सम्बन्ध में यह बताना सम्भव नहीं। प्रक्षेप वे अंश होते हैं जो कोई अन्य कृतिकार किसी प्रसिद्ध ग्रन्थ में किसी प्रयोजन से बढ़ा देता है और अपना नाम नहीं देता । आज पाठालोचन की वैज्ञानिक प्रक्रिया से प्रक्षेपों को अलग तो किया जा सकता है, पर यह बताना असम्भव ही लगता है वह अंश किस कवि ने जोड़े हैं।
कभी-कभी एक और प्रकार से कवि-निर्धारण सम्बन्धी समस्या उठ खड़ी होती है । वह स्थिति यह है कि रचनाकार का नाम तो मिलता नहीं पर लिपिकार ने अपना नाम आदि पुष्पिका में विस्तार से दिया है। कभी-कभी लिपिकार को ही कृतिकार समझने का भ्रम हो जाता है, अतः लिपिकार कौन है और कृतिकार कौन है, इस सम्बन्ध में निर्णय करने के लिए ग्रन्थ की सभी पुष्पिकानों को बहुत ध्यानपूर्वक देखना होगा तथा अन्य प्रमाणों की भी सहायता लेनी होगी।
कभी मूल पाठ में आये कवि नाम का अर्थ संदिग्ध रहता है। यद्यपि एक परम्परा उसका ऐसा अर्थ स्वीकार कर लेती है, जो शब्द से सिद्ध नहीं होता, यथा-'सन्देश रासक में कवि का नाम 'अद्दहमारण' दिया हुआ है, 'सन्देशरासक' की दो संस्कृत टीकाओं में अद्दहमान का 'अब्दुलरहमान' मूल रूप स्वीकार किया है। उनके पास कवि को 'अब्दुलरहमान' मानने का क्या प्राधार था, यह विदित नहीं । शब्द स्वयं इस नाम को संकेतित करने में भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से कुछ असमर्थ है । अब्दुल का 'अद्द' और रहमान का 'हमाण' कैसे हुआ होगा । डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी को यह टिप्पणी देनी पड़ी है-'किन्तु यहाँ भी कवि ने शब्द गठन में कुछ स्वतन्त्रता का परिचय दिया है। अब्दुल रहमान में रहमान मुख्य पद है । इसमें से प्रारम्भ के अक्षर को छोड़ना उचित नहीं था।' डॉ० द्विवेदी ने यह टिप्पणी यही मान कर की है कि संस्कृत टीकाकारों ने जो नाम सुझाया है 'अब्दुल रहमान' वह ठीक है। कवि अपने नाम के साथ भी श्लेष के मोह से खिलवाड़ कर सकता है और उसको कोई विकृत रूप दे सकता है, यह कुछ अधिक जचने वाली बात नहीं लगती। हो सकता है 'अद्दहमाण' 'अब्दुलरहमान' न होकर कुछ और नाम हो । समस्या तो यह है ही। कुछ ने इसे समस्या ही माना है, पर क्योंकि कोई और उपयुक्त समाधान सप्रमाण नहीं है, अतः लकीर पीटी जा रही है ?
तो पाठ का रूप ही ऐसा हो सकता है कि या तो कवि का नाम ठीक प्रकार से निकाला ही न जा सके, या जो निकाला जाय वह पूर्णतः संतोषप्रद न हो तो आगे अनुसंधान की अपेक्षा रहती है।
इसी प्रकार किसी काव्य की कवि ने स्पष्ट रूप से कोई पुष्पिका न दी हो, जिसमें कवि-परिचय हो या कवि का नाम ही हो, तो भी कवि का नाम उसकी छाप से जाना जा सकता है, पर ऐसी भी कृतियाँ हो सकती हैं, जिनमें कुछ शब्द इस रूप में प्रयुक्त हुए हों कि वे नाम-छाप से लगें; उदाहरणार्थ 'बसन्त विलास' में कवि ने प्रारम्भ किया है कि मैं
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