________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
288/पाण्डुलिपि-विज्ञान
अब प्रतियों की बहुल सम्मत्ति एवं क्लिष्ट पाठ की युक्ति पर विचार करने से प्रतीत होता है कि 927 मूल पाठ था और जायसी ने पद्मावत का आरम्भ इसी तिथि में अर्थात् 1521 में कर दिया था। ग्रन्थ की समाप्ति कब हुई, कहना कठिन है, किन्तु कवि ने उस काल के इतिहास की कई प्रमुख घटनाओं को स्वयं देखा था। बाबर के राज्य काल का तो स्पष्ट उल्लेख है ही (आखिरी कलाम 811)। उसके बाद हुमायूं का राज्यारोहण (836 हि.), चौसा में शेरशाह द्वारा उसकी हार (945 हि.), कन्नौज में शेरशाह की उस पर पूर्ण विजय (947 हि०), फिर शेरशाह का दिल्ली के सिंहासन पर राज्याभिषेक (948 हि०), ये घटनाएँ उनके जीवन काल में घटीं । मेरे मित्र श्री शम्भुप्रसाद जी बहुगुणा ने मुझे एक बुद्धिमत्तापूर्ण सुझाव दिया है कि पद्मावत के विविध हस्तलेखों की तिथियाँ इन घटनाओं से मेल खाती हैं । हि० 927 में प्रारम्भ करके अपना काव्य कवि ने कुछ वर्षों में समाप्त कर लिया होगा। उसके बाद उसकी हस्तलिखित प्रतियाँ समय-समय पर वनती रहीं । भिन्न तिथियों वाले सब संस्करण समय की आवश्यकता के अनुकूल चालू किये गये ! 927 वाली कवि लिखित प्रति मूल प्रति थी। 936 वाली प्रति की मूल प्रति हुमायं के राज्यारोहण की स्मृति रूप में चीलू की गई। हि० 945 वाली प्रति जिसका माता प्रसाद जी गुप्त ने पाठान्तर में उल्लेख किया है, शेरशाह की चौसा युद्ध में हुमायूं पर विजय प्राप्त करने के उपरान्त चालू की गई । 947 वाली चौथी प्रति शेरशाह की हुमायूं पर कन्नौज विजय की स्मृति का संकेत देती है । पाँचवीं या अन्तिम प्रति 948 हि० की है, जब शेरशाह दिल्ली के तख्त पर बैठ कर राज्य करने लगा था । मूल ग्रन्थ जैसे का तैसा रहा, केवल शाहे वक्त वाला अंश उस समय जोड़ा गया । पद्मावत जैसे महाकाव्य की रचना के लिए चार वर्षों का समय लगा होगा । सम्भावना है कि उसके बाद कवि कुछ वर्षों तक जीवित रहा हो । पद्मावत के कारण उसके महान व्यक्तित्व की कीर्ति फैल गई होगी। शेरशाह के अभ्युदय काल में कवि का बादशाह से साक्षात् मिलन भी बहुत सम्भव है । इस सम्बन्ध में पद्मावत का यह दोहा ध्यान आकृष्ट करता है :
दीन्ह असीस मुहम्मद करहु जुगहि जुग राज ।
पातसाहि तुम्ह जग के जग तुम्हार मुहताज ।। 1318-9 दोहे के शब्दों में जो आत्मीयता है और प्रत्यक्ष घटना जैसा चित्र है, वह इंगित करता है कि जैसे वृद्ध कवि ने स्वयं सुलतान के सामने हाथ उठा कर आशीर्वाद दिया हो । इस घटना के बाद ही शाहे वक्त की प्रशंसा वाला अंश शुरू में जोड़ा गया होगा। रामपुर की प्रति में इस अंश का स्थान भी बदला हुआ है। उसमें माताप्रसाद जी के दोहों की संख्या का पूर्वापर क्रम यह है—दो 12, 20 (गुरू महदी..."), 18 (सेयद असरफ.......), 19 (उन्ह घर रतन.......") 13, 14, 15, 16, 17, 21 अर्थात् शेरशाह वाले पाँच दोहों को गुरु-परम्परा के वर्णन के बाद रखा गया है। इससे अनुमान होता है कि बाद में बढ़ाए हए इस अंश का ठीक स्थान कहाँ हो, इस बारे में प्रतियों की कम से कम एक परम्परा में विकल्प अवश्य था ।"1
इस उद्धरण से काल-निर्णय में झमेले के लिये तीन कारण सामने आते हैं, पहला पाठ-भेद-5 पाठ-भेद मिले । पाठालोचन से भी इस सम्बन्ध में अन्तिम अकाट्य निर्णय
1. अग्रवाल, वासुदेव शरण (डॉ.!-पद्मावत. पृ. 45-47 !
For Private and Personal Use Only