Book Title: Pandulipi Vigyan
Author(s): Satyendra
Publisher: Rajasthan Hindi Granth Academy

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Page 324
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 290/पाण्डुलिपि-विज्ञान प्रति सं० 1508 की है, इसलिये यह उसकी रचना-तिथि की एक सीमा है। सं० 1508 की प्रति का पाठ अवश्य ही कुछ-न-कुछ प्रक्षेप-पूर्ण हो सकता है, क्योंकि वही सबसे बड़ा है, और पाठान्तरों की दृष्टि से अनेक स्थलों पर उससे भिन्न प्रतियों के पाठ अधिक प्राचीन ज्ञात होते हैं, इसलिये, रचना का समय सामान्यतः उससे काफी पहले का होना चाहिये। यह स्पष्ट है जैसा ऊपर कहा जा चुका है, प्रायः विद्वानों ने रचना की उक्त प्राचीनतम प्राप्त प्रति की तिथि मे उसे एक शताब्दी पूर्व माना है । किन्तु मेरी समझ में यहां उन्होंने अटकल से ही काम लिया है। पूरी रचना आमोद-प्रमोद और क्रीडापूर्ण नागरिक जीवन का ऐसा चित्र उपस्थित करती है जो मुख्य हिन्दी प्रदेश में 1250 वि० की जयचन्द पर मुहम्मद गौरी की विजय के अनंतर और गुजरात में 1356 वि० के अलाउद्दीन के सेनापति उलुगखां की विजय के अनंतर इस्लामी शासन के स्थापित होने पर समाप्त हो गया था । इसलिये रचना अधिक से अधिक विक्रमीय 14वीं शती के मध्य, ईस्वी 13वीं शती-की होनी चाहिये । फिर डॉ० गुप्त ने विस्तारपूर्वक 'बसन्त विलास' के उद्धरणों से उस जन-जीवन का विवरण दिया है और तब निष्कर्षतः लिखा है कि : "इस व्याख्या से यह स्पष्ट ज्ञात होगा कि तेरहवीं शती ईस्वी की मुसलमानों की उत्तर-भारत-विजय से पूर्व का ही नागरिक जीवन रचना में चित्रित है। मुसलमानों के शासन के अन्तर्गत इस प्रकार की स्वच्छन्दता से नगर के युवक-युवतियों की नगर के क्रीड़ावनों में मिलने की कोई कल्पना नहीं कर सकता है जैसी वह इस काव्य में वर्णित हुई है । कवि किसी पूर्ववर्ती ऐतिहासिक युग का इसमें वर्णन भी नहीं करता है, वह अपने ही समय के बसन्त के उल्लास-विलास का वर्णन करता है, इसलिये मेरा अनुमान है कि 'वसन्तविलास' का रचना-काल सं० 1356 के पूर्व का तो होना ही चाहिये और यदि वह सं० 1250 से भी पूर्व की रचना प्रमाणित हो तो मुझे आश्चर्य न होगा। सम्भव है उसकी भाषा का प्राप्त रूप इस परिणाम को स्वीकार करने में बाधक हो। किन्तु भाषा प्रतिलिपिपरम्परा में घिसकर धीरे-धीरे अधिकाधिक आधुनिक होती जाती है। इसलिये भाषा का स्वरूप प्राप्त परिणाम को स्वीकार करने में बाधक नहीं होना चाहिये ।"3 इस उद्धरण से उस प्रणाली का उद्घाटन होता है जिससे सांस्कृतिक-सामाजिक सामग्री को काल-निर्धारण का आधार बनाया जा सकता है। इसमें सांस्कृतिक सामाजिक जीवन का, बसन्त के अवसर का आमोद-प्रमोद वणित है। डॉ० गुप्त ने इस आधार को लेकर एक ऐतिहासिक घटना के परिप्रेक्ष्य में देखने का प्रयत्न किया है । वह घटना है उत्तरी भारत और गुजरात पर इस्लामी विजय और शासनइनका काल विदित है 1250 तथा 1356। कल्पना यह है कि इस समय के बाद ऐसा जीवन जिया नहीं जा सकता था; न कवि उसका ऐसा सजीव वर्णन ही कर सकता था। 1. (अ) वाह्य माक्ष्य की दृष्टि से काल संकेत युक्त प्रतिलिपि की महत्वपूर्ण होती है, यह इससे सिद्ध होता है। (आ) यथा-श्री मंजुलाल मजमुदार--गुजराती साहित्य ना स्वरूपो पश्च विभाग पृ. 225 । गुप्त, माताप्रसाद (डॉ.)-बसंत विलास और उसको भाषा, पृ. 4-51 गुप्त, माताप्रसाद (डॉ.)-बसंत विलास और उसकी भाषा, पृ. 8। For Private and Personal Use Only

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