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296/पाण्डुलिपि-विज्ञान
लिपि रचना-काल निर्धारण में तभी यथार्थ सहायता कर सकती है जब काल-क्रम से प्राप्त प्रायः सभी या अधिकांश हस्तलेखों से अक्षर, मात्रा और अंक के रूप तुलनापूर्वक कालक्रमानुसार दिये जायें और कालक्रमानुसार उनके वैशिष्ट्य भी प्रस्तुत किये जायें। लेखन-पद्धति, अलंकरण आदि
वैसे तो लेखन-पद्धति, अलंकरण आदि का भी सम्बन्ध कालावधि से होता ही है, क्योंकि लिखने की पद्धति, उसे अलंकृत करने के चिह्न और उपादान, इनसे सम्बन्धित संकेताक्षरों और चिह्नों का प्रयोग, मांगलिक तत्त्वों का अंकन, सभी का काल-सापेक्ष प्रयोग होता है। इनसे प्रयोग को काल-क्रम में बाँधकर अध्ययन किया जा सकता है, और तब काल-निर्धारण में इनकी सहायता ली जा सकती है । यथा---- संकेताक्षरों की कालावधि : पाँचवीं शताब्दी ईस्वी 1. स, समु, सव, सम्व या संवत- संवत्सर के लिए पूर्व 2. प
पक्ष के लिए 3. दि या दिव
दिवस के लिए 4. गि, गृ०, ग्र०
ग्रीष्म के लिए 5. व या वा
वर्ष (प्रा० वासी) के लिए 6. हे या हेम आदि
हेमन्त के लिए पांचवीं शती से और 1. दू०
दूतक के लिए प्रागे 2. रू०
रूपक के लिए 3. द्वि०
द्वितीया के लिए 4. नि०
'निरीक्षित' के लिए, निबद्ध
के लिए 5. महाक्षनि (संयुक्त शब्द) महाक्षपटलिक-निरीक्षित के
लिए 6. श्रीनि
श्रीहस्त श्रीचरण निरीक्षित
के लिए
7. श्री नि महासाम
श्री हस्तनिरीक्षित एवं महासंधिविग्रहिक निरीक्षित के
लिए। वस्तुतः काल-निर्णय में सहायक होने की दृष्टि से अभी संकेताक्षरों को काल-क्रम और कालावधि में बाँधकर प्रस्तुत करने के प्रयत्न नहीं हुए।
लेखन-पद्धति में ही सम्बोधन और उपाधिबोधक शब्द भी स्थान रखेंगे। हम देख चुके हैं कि शब्दों के लेख में 'स्वामी' सम्बोधन को देख कर और नाट्यशास्त्र में राजा के लिये उसे प्रयुक्त बताया देखकर कुछ विद्वान् नाट्य कला का प्रारम्भ भी विदेशी शकशासकों से मानने लगे थे।
सम्बोधन और उपाधिबोधक शब्दों को काल-क्रम से इस प्रकार रखा जा सकता
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