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काल निर्धारण/295
"रचना का नाम 'राउल वेल' =राजकुल-विलास है, इसलिये शिलालेख के व्यक्ति राजकुल के प्रतीत होते हैं। किन्तु प्राप्त ऐतिहासिक सामग्री से इन पर कोई प्रकाश नहीं पड़ता है। लेख के अन्त में दोनों छोरों पर दो प्राकृतियाँ हैं, जिनमें से एक भग्न है, जो शेष है वह कमल-वन की है, और जो भग्न है निश्चय ही वह भी उसी की रही होगी। इस प्रकार की प्राकृतियाँ लेखों के अन्त में उनकी समाप्ति सूचित करने के लिए दी जाती हैं । ऐसी परिस्थितियों में लेख का समय निर्धारण केवल लिपि-विन्यास के प्राधार पर सम्भव है। इसकी लिपि सम्पूर्ण रूप से भोज देव के 'कूर्मशतक' वाले धार के शिलालेख से मिलती है (दे० इपिग्राफिया इंडिका, जिल्द 8, पृ० 241)। दोनों में किसी भी मात्रा में अन्तर नहीं है, और उसके कुछ बाद के लिखे हुए अर्जुनवर्मनदेव के समय के 'पारिजात मंजरी' के धार के शिलालेख की लिपि किंचित् बदली हुई है (दे० इपिग्राफिया इंडिका, जिल्द 8, पृ० 96) इसलिये इस लेख का समय 'कूर्मशतक' के उक्त शिलालेख के आस-पास ही अर्थात् 11वीं शती ईस्वी होना चाहिये ।"
इस उदाहरण से स्पष्ट है कि लिपि भी काल-निर्धारण में सहायक हो सकती है। लिपि का विशेष रूप काल से सम्बद्ध है, और ज्ञात कालीन रचना की लिपि से तुलना पर साम्य देखकर काल-निर्णय किया जा सकता है । 'कूर्मशतक' भोजदेव की कृति है, उसका काल भोजदेव के काल के आधार पर ज्ञात माना जा सकता है। जिस काल में 'कूर्मशतक' की रचना हुई, उसके कुछ समय बाद को शिलांकित 'पारिजात-मंजरी' की लिपि भिन्न है, अतः ‘राउलबेल' की लिपि उससे पूर्व की और 'कूर्मशतक' के समकालीन ठहरती है तो रचनाकाल 11वीं शती माना जा सकता है।
इसमें 1 लिपि साम्य, और 2. लिपि-भेद के दो साक्ष्य लिये गये हैं। वास्तव में, लिपि के अक्षरों और मात्रात्रों के रूप ही नहीं अलंकरणों के रूप का भी काल-निर्धारण में साक्ष्य मानना होगा।
ऐतिहासिक दृष्टि से तो 'भारतीय लिपि और भारतीय अभिलेख' विषयक रचनाओं में लिपियों के कालगत भेदों और उनके अक्षरों और मात्राओं के रूपों में अन्तर का उल्लेख सोदाहरण और सचित्र हुआ है। किन्तु ग्रन्थों की लिपियों का इतना गहन और विस्तृत अध्ययन नहीं हश्रा। लिपि के अाधार पर ग्रन्थों के काल-
निर्धारण की दृष्टि से शताब्दी क्रम से ग्रन्थों में मिलने वाले लिपि-अन्तरों और वैशिष्ट्यों का अध्ययन होना चाहिये। इसका कुछ प्रयत्न 'लिपि-समस्या' वाले अध्याय में किया भी गया है । पर, वह अपर्याप्त
इस सम्बन्ध में पहला महत्त्वपूर्ण कार्य क० मु० हिन्दी तथा भाषा-विज्ञान-विद्यापीठ के अनुसन्धानाधिकारी विद्वद्वर पं० उदयशंकर शास्त्री का है। इन्होंने परिश्रमपूर्वक कालक्रम से मिलने वाले अक्षर, मात्रा और अंकों के रूप शिलालेख आदि के साथ ग्रन्थों के आधार पर भी दिये हैं। इस अध्ययन को पांडुलिपि-विज्ञानार्थी को और आगे बढ़ाना चाहिये । इनका यह फलक हमने 'लिपि समस्या' शीर्षक अध्याय में दिया है । उसमें कुछ और रूप भी हमने जोड़े हैं ।
1. गुप्त, माताप्रसाद, (डॉ.)-राउल वेल और उसकी भाषा, पृ. 191 2. दृष्टव्य-अध्याय-51
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