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काल निर्धारण 293
अाधार के रूप में बना रहेगा जब तक कि या तो इसे खंडित नहीं कर दिया जाता या पुष्ट नहीं कर दिया जाता है।
हाँ, एक स्थिति ऐसी हो सकती है जिससे अनुभवाश्रित अनुमान अधिक महत्त्व का हो सकता है । दो हस्तलेखों की तुलना में एक पुरानी प्रति अपनी जीर्णता-शीर्णता आदि के कारण निश्चय ही कुछ वर्ष दूसरे से पहले की मानी जा सकती है। अनुसंधान विवरणों और हस्तलेखों के काल-निरर्णायक तर्कों में प्रति की प्राचीनता भी एक आधार होती है।
वास्तविक बात यह है कि काल-क्रम की दृष्टि से कागजों के सम्बन्ध में दो बातों पर अनुसंधानपूर्वक निर्णय लिया जाना चाहिये। एक तो कागजों के कई प्रकार मिलते हैं। हाथ के बने कागज भी स्थान भेदों से कितने ही प्रकार के हैं, और इसी प्रकार मिल के बने कागजों के भी कितने ही भेद हैं। इनमें परस्पर काल-क्रम निर्धारित किया जाना चाहिये ।
__ हमारे यहाँ 20वीं शताब्दी से पूर्व हाथ का बना कागज ही काम में आता था । प्रायः सभी पांडुलिपियाँ उन्हीं कागजों पर लिखी मिलती हैं ।
अब यह आवश्यक है कि कोई वैज्ञानिक विधि रासायनिक या राश्मिक आधार पर ऐसी आविष्कृत की जाय कि ग्रन्थ के कागज की परीक्षा करके उनके काल का वैज्ञानिक अनुमान लगाया जा सके ।
___ जब तक ऐसा नहीं होता तब तक अनुभवाश्रित अनुमान मे जो सहायता ली जा सकती है, ली जानी चाहिये । स्याही
स्याही को भी काल-निर्णय में कागज की तरह ही सहायक माना जा सकता है । काल का प्रभाव स्याही पर भी पड़ता ही है, पर उसको जानने के लिए और उस प्रभाव से समय को प्रांकने के लिए कोई निभ्रान्त साधन नहीं है।
इन दोनों के सम्बन्ध में एक विद्वान का कथन है कि “जब किसी संग्रह के ग्रन्थों को देखते हैं तो उसकी विभिन्न प्रतियाँ विभिन्न दशाओं में मिलती हैं। कोई-कोई ग्रन्थ तो कई शताब्दी पुराना होने पर भी बहुत स्वस्थ और ताजी अवस्था में मिलता है। उसका कागज भी अच्छी हालत में होता है, और स्याही भी जैसी की तैसी चमकती हुई मिलती है, परन्तु कई ग्रन्थ बाद की शताब्दियों के लिखे होने पर भी उनके पत्र तड़कने से और अक्षर रगड़ से विकृत पाये जाते हैं।"
- इस कथन से यही निष्कर्ष निकलता है कि कागज और स्याही को काल-निर्णय का साधन बनाते समय बहुत सावधानी अपेक्षित है, और उन समस्त तथ्यों को ध्यान में रखना होगा जिनसे कागज और स्याही पर कालगत प्रभाव या तो पड़ा ही नहीं, या बहुत कम पड़ा, या कम पड़ा, या सामान्य पड़ा, या अधिक पड़ा।
पांडुलिपि-विदों ने काल-निर्गय में जहाँ इन दोनों का उपयोग किया है वहाँ तुलना के आधार पर ही किया है। लिपि
लिपि काल-निर्धारण में सहायक हो सकती है, क्योंकि उसका विकास होता आया
1. श्री गोपाल नारायण बहरा की टिप्पणियाँ।
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