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294/पाण्डुलिपि-विज्ञान
है, उस विकास में अक्षरों के लिपि-रूपों में परिवर्तन हुए हैं, जिन्हें काल-सीमाओं में बाँधा गया है । अक्षर का एक लिपि-रूप एक विशेष काल-सीमा में चला, फिर उसमें विकास या परिवर्तन हुआ और नया रूप एक विशेष काल-सीमा में प्रचलित रहा । आगे भी इसी प्रकार होता गया और विविध अक्षर-रूप विविध काल-सीमाओं में प्रचलित मिले। इस कारण एक विशेष अक्षर-रूप वाली लिपि को उस विशेष काल-अवधि का माना जा सकता है, जिसमें लिपि-वैज्ञानिकों ने उसे प्रचलित सिद्ध किया है।
शिलालेखों एवं अभिलेखों में लिपि के विकास की इन कालावधियों को सुविधा के लिये नाम भी दे दिये गये हैं।
अशोक-कालीन ब्राह्मी लिपि की कालावधि ई०पू० 500 से 300 ई० तक मानी गई । इस बीच में इसके अक्षर-रूपों में कुछ परिवर्तन हुए मिलते हैं। इन परिवर्तनों से एक नया रूप चौथी शती ई० में उभर उठता है ।
इसे गुप्तलिपि का नाम दिया गया, क्योंकि गुप्त सम्राटों के काल में इसका अशोक कालीन ब्राह्मी से पृथक् रूप उभर पाया । गुप्तलिपि का यह रूप छठी शती ई० तक चला। अन्य परिवर्तनों के साथ इसमें एक वैशिष्ट्य यह मिलता है कि सभी अक्षरों में कोण तथा सिरे या रेखा का समावेश हुआ । इसी को 'सिद्ध मातृका' का नाम दिया गया है।
इस लिपि में छठी से नवमी शताब्दी के बीच फिर ऐसा वैशिष्ट्य उभरा जो इसे गुप्तलिपि से पृथक कर देता है। ये वैशिष्ट्य हैं (1) गुप्तलिपि के अक्षरों की खड़ी रेखाएँ नीचे की ओर बायीं दिशा में मुड़ी मिलती हैं तथा (2) मात्राएँ टेढ़ी और लम्बी हो गई हैं, इसलिए इन्हें 'कुटिलाक्षर' या 'कुटिल लिपि' कहा गया। वहीं-कहीं 'विकटाक्षरा' भी नाम है।
- 'सिद्ध मातृका' से 'नागरी लिपि' का विकास हुआ। इसका आभास तो सातवीं शती से ही मिलता है, पर नवमी शताब्दी से अभिलेख और ग्रन्थ इस लिपि में लिखे जाने लगे । 11वीं शती में इसका व्यापक प्रयोग होने लगा।
यह स्थूल काल-विधान दिया गया है, यह बताने के लिए कि विशेष युग में लिपि का विशेष रूप मिलता है, अतः किसी विशेष लिपि-रूप से उसके काल का भी अनुमान लगाया जा सकता है, और लगाया भी गया है।
ग्रन्थों में उपयोग में आने पर भी लिपि-विकास रुकता नहीं, मन्द हो सकता है। यही कारण है कि ग्रन्थों की लिपियों में भी काल-भेद से रूपान्तर मिलता है, अतः उसके अाधार को काल-निर्णय का आधार किसी सीमा तक बनाया जा सकता है :
इसके लिए 'राउलवेलि' के सम्बन्ध में यह उद्धरण उदाहरणार्थ दिया जा सकता है । 'राउलवेलि' एक कृति या ग्रन्थ ही है, जो शिलालेख के रूप में धार से प्राप्त हुआ है। यह प्रिंस ऑव वेल्स म्यूजियम, बम्बई में सुरक्षित है ।
___ इस शिलांकित कृति में रचना-काल नहीं दिया गया। इसकी अन्तरंग सामग्री से किसी ऐतिहासिक व्यक्ति या घटना का भी संधान नहीं मिलता। इस कारण इतिहास से भी काल-निर्धारण में सहायता नहीं मिलती। अतः इस कृति के सम्पादक डॉ० माताप्रसाद गुप्त ने लिखा:
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