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पाण्डुलिपियों के प्रकार/161
सजावट चित्रों के माध्यम से होती है । एक हस्तलेख में चित्रों का उपयोग दो दृष्टियों से हो सकता है । एक-केवल सजावट के लिए और दूसरे संदर्भगत उपयोग के लिए। ये दोनों ही सादा एक स्वाही में भी हो सकते हैं और विविध रंगों में भी। नथ में चित्र
ग्रंथों में चित्रांकन की परम्परा भी बहुत प्राचीन है। 11वीं शती से 16वीं शती के बीच एक चित्रशैली प्रचलित हुई जिसे 'अपभ्रंश-शैली' नाम दिया गया है।
इनमें सम्बन्ध में 'मध्यकालीन-भारतीय कलाओं एवं उनका विकास' नामक ग्रंथ का यह अवतरण द्रष्टव्य है
"मुख्यतः ये चित्र जैन संबंधी पोथियों (पाण्डुलिपियों) में बीच-बीच में छोड़े हुए चौकोर स्थानों में बने हुए मिलते हैं।" - इसका अर्थ है कि यह 'अपभ्रंश-कला' ग्रंथ-चित्रों के रूप में पनपी और विकसित हुई । यह भी स्पष्ट है कि इससे जैन धर्म-ग्रंथों का ही विशुद्ध योगदान रहा। हाँ, अकबर के समय में साम्राज्य का प्रश्रय चित्रकारों को मिला । इस प्रश्रय के कारण कलाकारों ने अन्य ग्रंथों को भी चित्रित किया। राजस्थान-शैली में भी चित्रण हुआ। इस प्रकार हस्तलिखित ग्रंथों में चित्रों की तीन शैलियाँ पनपती मिलती हैं। एक अपभ्रश-शैली जैन-धर्म ग्रंथों में पनपी । इसके दो रूप मिलते हैं । एकमात्र अलंकरण सम्बन्धी। 1062 ई. के 'भगवती-सूत्र' में अलंकरण मात्र हैं। अलंकरण शैली में विकास की दूसरी स्थिति का पता हमें 1100 ई० की 'निशीथ-चूणि' से होता है । इस पाण्डुलिपि में अलंकरण के लिए वेलबंटों के साथ पशुओं की प्राकृतियाँ भी चित्रित हैं। 13वीं शतो में देवी-देवताओं का चित्रण बाहुल्य से होने लगा।
मे सभी प्रतियाँ ताड़पत्र पर हैं । चित्र भी ताड़पत्र पर ही बनाये गये हैं ।
"1100 से 1400 ई. के मध्य जो चित्रित ताड़पत्र तथा पाण्डुलिपियाँ मिलती हैं उनमें 'अंगसूत्र', 'कथा सरित्सागर', 'त्रिषष्ठि-शालाका-पुरुष-चरित', 'श्री नेमिनाथ चरित', 'श्रावक-प्रतिक्रमण-चूणि' आदि मुख्य हैं।"
1400 से ताड़पत्र के स्थान पर कागज का उपयोग होने लगा।
1400 से 1500 के बीच की चित्रित पांडुलिपियों में कल्पसूत्र, कालकाचार्य-कथा, सिद्धसेन आदि विशेष उल्लेखनीय हैं।
पंद्रहवीं-सोलहवीं शती में कागज की पांडुलिपि में कल्पसूत्र और कालकाचार्य कथा की अनेकों प्रतियाँ चित्रित की गयीं। हिन्दी में कामशास्त्र के कई ग्रंथ इसी काल में सचित्र लिखे गये । 1451 की कृति वसंत-विलास में 79 चित्र हैं ।
1. नाथ, आर० (डॉ.)-मध्यकालीन भारतीय कलाएँ एवं उनका विकास, पृ. 431 .. वही, पृ० 3. वही, पृ. 4 4. लखनऊ संग्रहालय में हैं : 1547 ई. में चित्रित 23 चित्रों से युक्त फिरदोसी का 'शहनामा अकबर
के समय में चित्रित छ: चित्रों वामी पोथी हरिवंश पुराण' के अंशों के फारसी अनुवाद वाली; 17वीं मतान्दी की काश्मीर शैली के 12 चित्रों बाली कुण्डली (Scroll) के रूप में 'भागवत'। क्रमशः
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