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190 / पाण्डुलिपि - विज्ञान
कार्य हाथ में लिया । उन्होंने ब्राह्मी तथा खरोष्ठी लिपियों का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया । इलियट साहब ने कर्नल मेकेन्जी के संग्रह का संशोधन और संवर्द्धन किया । दक्षिण के चालुक्य वंश का विस्तृत ज्ञान सर्वप्रथम उन्होंने लोगों के सामने प्रस्तुत किया। टेलर साहब ने भारत की मूर्ति-निर्माण-विद्या का अध्ययन किया और स्टीवेन्सन् ने सिक्कों की शोधखोज की । पुरातत्त्व संशोधन के कार्य में प्रवीणता प्राप्त करने वाले प्रथम भारतीय विद्वान् डॉक्टर भाउदाजी थे । उन्होंने अनेक शिलालेखों को पढ़ा और भारत के प्राचीन इतिहास
ज्ञान में खूब वृद्धि की है । इस विषय में दूसरे नामांकित भारतीय विद्वान् काठियावाड़ निवासी पण्डित भगवानलाल इन्द्रजी का नाम उल्लेखनीय है जिन्होंने पश्चिम भारत के इतिहास में मूल्य वृद्धि की है । उन्होंने अनेक शिलालेखों और ताम्रपत्रों को पढ़ा है परन्तु उनके कार्य का सच्चा स्मारक तो उनके द्वारा उड़ीसा के खण्डगिरि-उदयगिरि वाली हाथीगुंफा में सम्राट खारवेल के लेखों को शुद्ध रूप से पढ़ा जाना ही है । बंगाल के विद्वान् डॉ० राजेन्द्रलाल मित्र का नाम भी इस विषय में विशेष रूप से उल्लेख करने योग्य है । उन्होंने नेपाल के साहित्य का विशिष्ट ज्ञान प्राप्त किया है ।"1
इस विवरण से एक चित्र तो काशी के पण्डित का उभरता है, जिसने अपने कौशल से मिथ्या कुञ्जी प्राचीन लिपि को पढ़ने के लिए प्रस्तुत की और वह भी ऐसी कि पहले उस पर सभी को विश्वास हो गया ।
दूसरा चित्र उभरता है उस मुद्रा का जो अफगानिस्तान में मिली और उसके सम्बन्ध में यह धारणा बना ली गई कि इसकी भाषा पहलवी है और लिपि ऐसी होगी जो दायें से बायें लिखी जाती होगी । फलतः यह बहुत श्रावश्यक है कि पहले भाषा का निर्धारण किया जाय, फिर लिपि-लेखन की प्रवृत्ति का भी । क्योंकि उसकी लिपि वस्तुत: खरोष्ठी थी और उसकी भाषा पालि पहलवी का पीछा विद्वानों ने तब छोड़ा जब 1838 ई० में दो वाक्ट्रीअन ग्रीक सिक्कों पर पाली लेखों को देखा ।
• एक तीसरा चित्र यह उभरता है कि मात्र वर्णों की आकृति से लिपि किस भाषा की है यह नहीं कहा जा सकता । इसके लिए टॉम कोरिएट नामक यात्री की भ्रान्ति का उल्लेख ऊपर हो चुका है । ग्रशोक - लिपि की ग्रीक - लिपि से समानता देखकर उसने उसे ग्रीक लेख समझ लिया था ।
वस्तुतः लिपि के अनुसन्धान में वही वैज्ञानिक प्रक्रिया काम करती है जिसमें ज्ञात बदाल स्तम्भ का लेख एवं टोपरा वाले
से अज्ञात की श्रोर बढ़ा जाता । इसी आधार पर दिल्ली के अशोक स्तम्भ पर बीसलदेव के तीन लेख पढ़े गये । इससे जो प्राचीन लेख थे उनको पढ़ने में बहुत कठिनाई और परिश्रम हुआ क्योंकि उनके निकट की ज्ञात लिपियाँ थ ही नहीं । अव यहाँ पर प्रिंसेप महोदय ने अनुसन्धान की विशेष सूझ-बूझ का परिचय दिया । उन्होंने साँची स्तूप आदि पर खुदे हुए कितनी ही छापों को तुलनापूर्वक देखा । इन सबमें उन्हें दो अक्षर समान मिले और अनुमान लगाया कि दो अक्षरों वाला शब्द दान हो सकता है और इस अनुमान के आधार पर 'द' और 'न' अक्षरों का निर्धारण हुआ और इस प्रकार ब्राह्मी लिपि का उद्घाटन हो सका । स्पष्ट है कि इस प्रकार लिपि की गाँठ खोलने के लिए तुलना भी एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण साधन है ।
1. मुनि जिन विजयजी -- पुरातत्व संशोधन का पूर्व इतिहास- स्वाहा, वर्ष 1 अंक 2-3, पृ० 27-34
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