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पाठालोचन/227
संकेत नाम देने से ग्रन्थ के पाठ-संकेत देने में सुविधा होती है, स्थान कम घिरता है और समय की बचत भी होती है।
'संकेत प्रणाली'—संकेत देने की कई प्रणालियां हो सकती हैं, जैसे-(क) क्रमांकसभी आधार-ग्रन्थों को सूचीबद्ध करके उन्हें जो क्रमांक दिये गये हों उन्हें ही 'ग्रन्थ' संकेत मान लिया जाय-यथा (1) महावनवाली प्रति, (2) आगरावाली प्रति, आदि । अब इनका विवरण देने की आवश्यकता नहीं रही केवल 'संकेत' संख्या लिख देने से काम चल जायगा। प्रति संख्या (2) सदा आगरा वाली प्रति समझी जायगी । यह आवश्यक है कि सूचीबद्ध करते समय प्रत्येक संकेत' के साथ ग्रन्थ का विवरण भी दिया जाय । जिससे उस संख्या के ग्रन्थ के स्वरूप का यथार्थ ज्ञान हो सके । उदाहरणार्थ-हम 'पृथ्वीराज रासो' की एक प्रति का परिचय उद्धृत करते हैं :
क्रमांक-1--यह प्रति प्रसिद्ध जैन विद्वान मुनि जिनविजय के संग्रह की है। यह 'रासो' के सबसे छोटे पाठ की एकमात्र अन्य प्राप्त प्रति है, और उतनी ही महत्त्वपूर्ण है जितनी 'धा०' है । इस प्रति के लिए मुनि जी को जब मैंने लिखा, वह श्री अगरचन्दजी नाहटा के पास थी । कदाचित् प्रति की जीर्णता के ध्यान से नाहटा जी ने मूल प्रति न भेजकर उसकी एक फोटोस्टेट कापी मुझे भेज दी । इस बहुमूल्य प्रति के उपयोग के लिए मैं मुनिजी का अत्यन्त प्रभारी हूँ । प्रस्तुत कार्य के लिए इसी फोटोस्टेट कापी का उपयोग किया गया है । मूल प्रति मैंने 1956 के जून में डॉ० दशरथ शर्मा के पास दिल्ली में देखी थी। फोटोस्टेट होने के कारण यह कापी प्रति की एक वास्तविक प्रतिकृति है।
इस प्रति के प्रारम्भ के दो पन्ने नहीं हैं, शेष सभी हैं। इसमें भी खण्ड-विभाजन और छन्दों की क्रम-संख्या नहीं है । इसमें वार्ताओं के रूप में इस प्रकार के संकेत भी प्रायः नहीं दिये हुए हैं जैसे 'धा०' में हैं । प्रारम्भ के दो पन्ने न होने के कारण इसकी निश्चित छन्द संख्या कितनी थी, यह नहीं कहा जा सकता है, किन्तु इन त्रुटित दो पत्रों में से प्रथम पृष्ठ-रचना के नाम का रहा होगा, जैसा अनिवार्य रूप से मिलता है, और शेष तीन पृष्ठ ही रचना के पाठ के रहे होंगे । तीसरे पत्र के प्रारम्भ में जो छन्द आता है वह 'धा०' में 17 है, जिसका कुछ अंश पूर्ववर्तीय द्वितीय पत्र पर रहा होगा और 'धा०' की तुलना में इसमें 30-31 प्रतिशत रूपक अधिक हैं । इसलिए 'धा०' के 16 रूपकों के स्थान पर इसके प्रथम दो पत्रों में 20-21 रूपक रहे होने चाहिये । फलतः इन निकले हुए दो पत्रों में 20 छन्द मान लेने पर प्रति की कुल छन्द संख्या 552 ठहरती है । यह प्रति अत्यन्त सुलिखित है और उपर्युक्त दो पत्रों के अतिरिक्त पूर्णतः सुरक्षित भी है । इसका आकार 6:25"x3" और इसकी पुष्पिका इस प्रकार है।
___"इति श्री कविचन्द विरचिते प्रथीराज रासु सम्पूर्ण । पण्डित श्री दान कुशल गणि । गणि श्री राजकुशल । गणि श्री देव कुशल । गणि धर्म कुशल । मुनि भाव कुशल लषितं । मुनि उदय कुशल । मुनि मान कुशल । सं० 1697 वर्ष पौष सुदि अष्टम्यां तिथी गुरु वासरे मोहनपूरे।"
यह एक काफी सुरक्षित पाठ-परम्परा की प्रति लगती है, क्योंकि इसमें पाठ-त्रुटियाँ बहुत कम हैं, और अनेक स्थानों पर एकमात्र इसी में ऐसा पाठ मिलता है जो बहिरंग और अन्तरंग सभी सम्भावनाओं की दृष्टि से मान्य हो सकता है । फिर भी श्री नरोत्तमदास स्वामी ने कहा है कि इसका 'पाठ बहुत ही अशुद्ध और भ्रष्ट है।' उन्होंने यह धारणा इस
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