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256/पाण्डुलिपि-विज्ञान
राम प्रगासों बीमल दे राई । ___एक अन्य प्रति में यों है.... संवत सहा सतिहत्तरई जारिण।
3. इस पाठ से संवत् सत्तहत्तर अर्थात नल्ह कवीमरि कही अमृतवारिण ।
1077 निकलता है। गुण गुथ्थउ च उहाग का। मुकलपक्ष पंचमी श्रावणमास । रोहिणी नक्षत्र सीहामरणउ । एक अन्य प्रति में--- संवत तेर सतोत्तरइ जाणि
4. इसमें 1377 संवत् आता है। सुक पंचमी नइ श्रावण मास, 5. इसका एक अर्थ हो सकता है : हस्त नक्षत्र रविवार सुं
सतोत्तरह = शत उत्तर एकसौ तेर -
13 : अर्थात् 1013 एक अन्य में--- संवत सहस तिहत्तर जारिण
6. हममे संवत 1073 निकलता है। नाल्ह कबीसरि सरसिय वारिण डॉ० गुप्त ने एक अन्य प्रति के आधार पर एक संवत् 1309 और बताया है। उन्होंने इस प्रति को 'अ० सं०' नाम दिया है।
'बीसलदेव रास' के रचना काल के सम्बन्ध में कठिनाइयों का एक कारण तो यह है कि विविध उपलब्ध पांडुलिपियों में संवत् विषयक पंक्तियों में पाठ-भेद है । पाँच प्रकार के पाठ-भेद ऊपर बताये गये हैं । इतने संवतों में से वास्तविक संवत कौन-सा है, इसे पाठालोचन के सिद्धान्त से भी निर्धारित नहीं किया जा सका। बहुत बड़े विद्वान पाठालोचक डॉ० गुप्त ने टिप्पणी में दिये पूर्व संवत् को नहीं लिया शेष छ: को लेकर किसी निर्णय पर न पहुँच सकने के कारण व्यंग्यात्मक टिप्पणी दी है जो पठनीय है : “चैत्रादि और कार्तिकादि, दो प्रकार के वर्षों के अनुसार इन छः की बारह तिथियाँ बन जाती हैं और यदि 'गत' और 'वर्तमान्' संवत् लिये जायें तो उपर्युक्त से कुल चौबीस तिथियाँ होती हैं" । डॉ० गुप्त ने पाठ-भेद की कठिनाई का समाधान निकालने की बजाय तद्विषयक कठिनाइयाँ और बढ़ा के प्रस्तुत कर दी हैं । स्पष्ट है कि पाठालोचन के सिद्धान्त से किसी एक पाठ को वे प्रामाणिक नहीं मान सके । किन्तु यह भी सच है कि काल-निर्धारण में आने वाली कठिनाइयों की ओर भी ठीक संकेत किया है : संवत का प्रारम्भ कहीं त्रादि से माना जाता है तो कहीं कार्तिकादि मे-ग्रतः ठीक-ठीक तिथि निर्धारण के समय इस तथ्य को भी ध्यान में रखना पड़ता है। दूसरे संवत् का उल्लेख 'गत' के लिये भी होता है, और 'वर्तमान' के लिये भी होता है : यथार्थ तिथि निर्धारण में इस तथ्य को भी ध्यान में रखना होता है । अत: काल-निर्धारण में ये भी यथार्थ कठिनाइयाँ मानी जा सकती है।
पाठ-भेदों से उत्पन्न कठिनाई के बाद एक कठिनाई उचित अर्थ विषयक भी दिखाई पड़ती है। मान लीजिये कि एक ही पाठ 'बारह से बहात्तराहा मझारि' ही मिलता तो
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