________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
258/पाण्डुलिपि-विज्ञान
दे दिया । एक कारण यह भी हो सकता है कि मूल की लेखन-पद्धति कुछ ऐसी हो कि 'सत्रह सै', 'एकादश' पढ़ा गया । 'साठ का पाठ भी भ्रान्त वाचना पर निर्भर करता है।
इसी प्रकार एक पाठ में है : सौलह से बालीस में संवत अवधारू चैतमास शुभ पछ पुण्य नवनी भृगुवारू ।
इसमें चालीस का हो 'बालीस' हो गया है। एक अन्य पाठ से 'चालीस' की पुष्टि होती है । स्पष्ट है कि यह 'बालीस' बयालीस (42) नहीं है ।।
यह 'पाठ-दोष' या भ्रान्त वाचना कभी-कभी इतनी विकृत हो सकती है कि उसका मूल कल्पित कर सकना इतना सरल नहीं हो सकता जितना कि बालीस को चालीस रूप में शुद्ध बना लेना। ऐसा एक उदाहरण यह हैरी भव बक्र सोनाणइ नंदु जुत
करी सम्य (समय) जानी, असाढ़ मी सीत सुम पंचमी
सनी को वासर मानी। इस काल द्योतक पद्य का प्रथम चरण इतना भ्रष्ट है कि इसका मूल रूप निर्धारित करना कठिन ही प्रतीत होता है। पं० विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने जो कल्पना से रूप प्रस्तुत किया है वह उनकी विद्वता और पांडित्य से ही सिद्ध हो सका है। उन्होंने सुझाव दिया है कि इसका मूल पाः यह हो सकता है
"विधि भव वक्त्र सुनाग इन्दुजुत करी समय जानी" और इसका अर्थ किया है : विधि वक्त्र भव वक्त्र नाग
8
इंदु
अत: संवत् हुअा 1854
हमने यह देखा कि पुष्पिकानों में संवत् का उल्लेख होता था और यह संवत् विक्रम संवत् था। ऊपर के सभी उदाहरण विक्रम संवत् के द्योतक हैं, किन्तु ऐसे भी उल्लेख मिलते हैं, जैसे ये हैं :
संमत सत्रह से ऐकानवे होई एगारह मै सन पैतालिस सोई अगहन मास पछ अजीपारा तीरथ तीरोदसी सुकर संवारा । इसमें 'अजीबारा' का रूप तो 'उजियारा' अर्थात् शुक्ल : उज्वल पक्ष है 'तीरथ'
1. हस्तलिखित हिन्दी ग्रन्धों का अठारह
वार्षिक विवरण, पृ.18।
For Private and Personal Use Only