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272 /पाण्डुलिपि-विज्ञान
'योग' की भाँति ही 'करण' का भी उल्लेख होता है। करण तिथि के अर्धाश को कहते हैं, और इनके भी विशिष्ट नाम रखे गये हैं : पहले सात करण होते हैं जिनके नाम हैं : 1. बव, 2. बालव, 3. कौलव, 4. तैतिल, 5. गद, 6. वरिणज एवं 7. विष्टि (भांद्र या कल्याण)। ये सात चक्र के रूप में आठ बार प्रयोग में आते हैं और इस प्रकार 56 अर्द्ध तिथियों का काम देते हैं । ये 56 अर्द्ध तिथियाँ सुदी प्रतिपदा से लेकर बदी 14 (चौदस) तक पूरी होती हैं। अब चार अर्द्ध तिथियाँ शेष रहती हैं, बदी का चौदस से सुदी प्रतिपदा तक की-इन करणों के नाम हैं : 8. शकुनि, 9. चतुष्पद, 10. किन्तुघ्न और 11. नाग । काल संकेतों में कभी-कभी करण का नाम भी पा जाता है, जैसे 1210 विक्रमी के अजमेर के शिलालेख में ।
भारतीय कालगणना के आधार सीधे और सपाट न होकर जटिल हैं। इससे कालनिर्णय में अनेक अड़चनें पड़ती हैं :
पहले, तो यह जानना ही कठिन होता है कि वह संवत् कार्तिकादि, चैत्रादि, आषाढ़ादि या श्रावणादि है, दूसरे--प्राभान्त है या पूणिमान्त है। फिर,
तीसरे-ये वर्ष कभी वर्तमान (या प्रवर्तमान) रूप में कभी गत विगत या प्रतीत रूप में लिखे जाते हैं। इनकी और पहले 'वीसलदेव रासो' के काल-निर्णय के सम्बन्ध में डॉ० माताप्रसाद गुप्त का उद्धरण देकर ध्यान आकर्षित कर दिया जा चुका है।
इन सबसे बढ़कर कठिनाई होती है इस तथ्य से कि तिथि लिखते समय लेखक से गणना में भी भूल हो जाती है ।
यह त्रुटि उस गणक या ज्योतिषी के द्वारा की जा सकती है जो लेख लिखने वाले को बताता है। उसका गणिक का ज्ञान या ज्योतिष का ज्ञान सदोष हो सकता है। पत्रों या पंचांगों में भी दोष पाये जाते हैं। आज भी कभी-कभी वाराणसी और उज्जन पंचांगों में तिथि के प्रारम्भ में ही अन्तर मिलता है, जिससे विवाद खड़े हो जाते हैं और यह विवाद पत्रों (पंचांगों) में भी प्रकट हो उठता है। जब आज भी यह मौलिक त्रुटि हो सकती है, तब पूर्व-काल में तो और भी अधिक सम्भव थी। गांवों, नगरों की बात छोड़िये कभी-कभी तो राजदरबारों में भी अयोग्य ज्योतिषियों के होने का ऐतिहासिक उल्लेख मिलता है । कलचुरि 'रत्नदेव द्वितीय' के सन् 1128 ई० के सो लेख से यह सूचना मिलती है कि दरबार में ज्योतिषियों से ठीक गणित ही नहीं होती थी और वे 'ग्रहण' का समय ठीक निर्धारित नहीं कर पाते थे । तब पद्मनाभ नाम के ज्योतिषी ने बीज-संस्कार किया' जिससे तिथियों का ठीक निर्धारण हो सका। राजा ने पद्मनाभ को पुरस्कृत किया, अतः ज्योतिषियों से भी भूल हो सकती है । ऐसी दशा में काल संकेत सदोष हो जायेंगे।
___इससे किसी लेख या अभिलेख का काल-निर्धारण कठिन हो जाता है और यह आवश्यक हो जाता है कि दिये हुए काल-संकेत को परीक्षा के उपरान्त ही सही माना जाय । जैसा ऊपर बताया जा चुका है विविध ज्योतिष केन्द्रों के बने पंचांगों और पत्रों में अलगअलग प्रकार से गणना होने के कारण तिथियों का मान अलग-अलग हो जाता है । इससे दी हुई तिथि की परीक्षा से भी सन्तोष नहीं हो पाता, वह तिथि एक पंचांग से ठीक और दूसरे से, गलत सिद्ध होती है। इससे परीक्षक को विविध पंचांगों की भिन्नता में
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