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260, पाण्डुलिपि-विज्ञान
. शक 500वें वर्ष से 1262वें वर्ष के बीच इसके साथ 'शक' शब्द लगने लगा, जिसका अभिप्राय यह था कि 'शकनृपति के राज्यारोहण के समय से' । शाके शालिवाहने
फिर चौहदवीं शताब्दी में शक के साथ शालिवाहन और जोड़ा जाने लगा। 'शाकेणालिवहन-संवत् वही शक-संवत् था, पर नाम उसे शालिवाहन का और दे दिया गया।
शक-संवत् विक्रम संवत् से 135 वर्ष उपरान्त अर्थात् 78 ई० में स्थापित हुआ। इस प्रकार विक्रम सं० से 135 वर्ष का अन्तर शक-मंवन में है और ईस्वी सन् से 78 वर्ष का। पूर्वकालीन शक-संवत्
यह विदित होता है कि शकों ने अपने प्रथम भारत-विजय के उपलक्ष्य में 71 या 61 ई० पू० में एक संवत् चलाया था। इसे पूर्वकालीन शक-संवत् कह सकते हैं। विम कडफिस का राज्य-काल इसी संवत् के 19 1वें वर्ष में समाप्त हुआ था। यह संवत् उत्तर पश्चिमी भारत के कुछ क्षेत्र में उपयोग में आया था। बाद का शक-संवत् पहले दक्षिण में प्रारम्भ हुआ फिर समस्त भारत में प्रचलित हुआ। जैसा ऊपर बताया जा चुका है यह 78वें ईस्वी संवत् में प्रारम्भ हुआ था । कुषाण-संवत्
(यही कनिष्क संवत् भी कहलाता है)
इसकी स्थापना सम्राट कनिष्क ने ही की थी। वह संवत् कुछ इस तरह लिखा जाता था --- "महाराजस्य देवपुत्रस्य कणिकस्य मंवत्सरे 10 ग्रि 2दि 9।" इसका अर्थ था कि महाराजा देव पुत्र कनिष्क के संवत्सर 10 की ग्रीष्म ऋतु के दूसरे पाख के नवमें दिन या नवमी तिथि को।।
कनिष्क ने यह संवत् ई० 120 में चलाया था । इसका प्रचलन प्रायः कनिष्क के वंशजों में ही रहा । 100 वर्ष के लगभग ही यह प्रचलित रहा होगा। इसके बाद उसी क्षेत्र में पूर्वकालीन शक-संवत् का प्रचार हो गया । कृत, मालव तथा विक्रम संवत्
कृत, मालव तथा विक्रम संवत् नाम से जो संवत् चलता है वह राजस्थान और मध्यप्रदेश में संवत् 282 से उपयोग में आता मिलता है ।
ये नाम तो तीन हैं : पहले 'कृत-संवत्' का उपयोग मिलता है, बाद में इसे मालव कहा जाने लगा और उसके भी बाद इसी को 'विक्रम-संवत्' भी कहा गया। अाज विद्वान इस तथ्य को कि कृत, मालव तथा विक्रम संवत् एक संवत् के ही नाम हैं निर्विवाद रूप से स्वीकार करते हैं । इन नामों के कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं : 1. "कृतयोंर्द्वयोवर्ष शतयोर्द्वय शीतयौं : 200+80+2 चैत्र पूर्णमास्याम्" ।। 2. श्री मालवगरणाम्नाते प्रशस्ते कृतसंज्ञिते । कष्टयधिके प्राप्ते समाशत चतुष्टये । दिने
1. Pandey. R. B.-Indian Palaeography, p. 199.
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