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इम जंपि चंद ' विरदीउ' (विरदियउ ) दस कोस चहुत्रांन गउ ।
पाठालोचन / 231
( मो० 80.2-4 )
जिम सेत वज 'साजीउ' (साजियउ ) पथ । (7) 'उ' की मात्रा का प्रयोग प्रायः 'उ' के लिए हुआ है, यथातव ही दास कर हथ सुवंय सुनाययूउ । बानावलि विहु बांन रोस रिस 'दाहयु' । मनहू नागपति पतिन अप 'जगाइयु' । पायक धनू धर कोटि गनि असी सहस हयमंत जहु । कहि सामंत सुइ जु जीवत ग्रहि प्रथीराज 'कुं' । निकट सुनि सुरतांन वांग दिसि उच हथ 'सुं' (सउ) जस अवसर सतु सचि अछि लुटीय न करीय 'भू' (भउ ) । 'सु' (सउ) बरस राज तप अंत किंन ।
'सु' (सउ) उपरि 'सु' (सउ ) सहस दौह अगनित लष दह । ( मो० 283-2) कन (उ) ज राडि पहिलि दिवसि 'शु' (शउ) मि सात निवटिया । ( मो० 298.6) (8) कभी-कभी 'उ' की मात्रा से 'ओ' की मात्रा का भी काम लिया गया है
निशपल पंच घटीए दोई 'धायु' । आखेटकन्नंखे नृप आयो । (9) और कभी-कभी 'उ' की मात्रा कवि देष कवि कुमन 'रत्त ' न्याय नयन कन ( उ ) जि पहुतो । इसकी पुष्टि एकाध स्थान पर 'उ' होती है
प्रात राउ संप्रापतिग जाहां दर देव 'अनोपं' । सयन करि दरबार जिहि सात सहस अंस भूप ॥ (10) इसी प्रकार कहीं-कहीं 'उ' वर्ण का प्रयोग तुलंत जू तुज तराजून्ह गोप | मनु धन मद्मि तडितह 'उ' । गंग जल जिमन घर हलि 'उजे' । पंगरे राय राठुर फोजे ।
(मो० 343.7)
(मो० 492-24)
(मो० 230.5-6 )
(मो० 92.3-4 )
से 'श्री' की मात्रा का काम लिया गया है
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( मो० 533.3 -4 )
(मो० 21 की अन्तिम श्रद्धर्शली )
(मो० 176.1-2)
के स्थान पर 'ओ' की मात्रा मिलने से भी
(मो० 214 )
'ओ' के लिए हुआ मिलता है
(मो० 161.27-28)
( मो० 284.15 - 16 )
प्रति की वर्तनी सम्बन्धी ऐसी ही प्रवृत्तियों का यहाँ उल्लेख किया गया है जो हिन्दी की प्रतियों में प्रायः नहीं मिलती हैं, और इसीलिए हिन्दी पाठक को ऐसा लग सकता है कि ये प्रतिलिपिकार की अयोग्यता के कारण हैं, किन्तु ऐसा नहीं है । नारायणदास तथा रत्नरंग रचित 'छिताई वार्ता' की भी एक प्रति में, जो इस प्रति के कुछ पूर्व की है, वत्तनी - सम्बन्धी ये सारी प्रवृत्तियाँ मिलती हैं, यद्यपि ये परिमाण में कम हैं, पश्चिमी