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252/पाण्डुलिपि-विज्ञान
फिर यह आवश्यक होता है कि इन दोनों की सप्रमाण व्याख्या करके और उनके ऐतिहासिक काल के सन्दर्भ से उस कवि की समयावधि की ऊपरी काल-सीमा और निचली काल-सीमा सावधानीपूर्वक निर्धारित की जाय । इस सम्बन्ध में प्रचलित अनुश्रुतियों की भी परीक्षा की जानी चाहिये । प्राचीन साहित्य, ग्रंथ, हस्तलेख आदि के सम्बन्ध में इस 'अन्तरंग-साक्ष्य' की काल-गत परिणति की प्रक्रिया का बहुत सहारा लेना पड़ा है।
___ यह बात ध्यान में रखने की है कि अन्तरंग साक्ष्य या अन्तरंग संगत कथनों की कालगत परिणति प्रामाणिक और निर्धान्त रूप से स्थापित की जाय, जैसे--'श्राविष्ठा' का आदि नक्षत्र के रूप में उल्लेख सिद्ध करता है। अतः तर्क और प्रमाण प्रबल होने चाहिए, उदाहरणार्थ---यवनानी लिपि विषयक तर्क की प्रायोनियनों से भारत का सम्बन्ध सिकन्दर से पूर्व से था, प्रबल और पुष्ट तर्क माना जा सकता है।
दुर्बल और असंगत तर्क आगे के विद्वानों द्वारा काट दिये जाते हैं। दूसरे प्रवल तर्क देकर काल-निर्धारण करने का प्रयत्न निरन्तर होता रहता है। जैसे---साहित्यदर्पण को भूमिका में कारणे- महोदय ने लिखा है कि---Attempts are made to fix the age of both she and cut by reference to parallel passages from early writers and it is argued that they are later than these poets. Unless the very words are quoted I am not at all disposed to attach the slightes! weight to parallelism of thought. There is not monopoly in the realm of thought as was observed by the ध्वनिकार (iv II संवादास्तु भवन्त्येव बाहुल्येन सुमेधसामा) । कारणे महोदय ने यहाँ यह सिद्धान्त प्रतिपादित किया कि केवल विचार-साम्य काल निर्धारण में सहायक नहीं, समान वाक्यावली अवश्य प्रमाण बन सकती है पर केवल शब्दावली साम्य ही पर्याप्त नहीं, सन्दर्भगत अभिप्राय-साम्य भी हो तो प्रमाण अच्छा माना जा सकता है। काल-संकेतों के रूप
काल निर्धारण में ऐसे लेखकों और ग्रन्थों के सम्बन्ध में तो कठिनाई आती ही है, जिनके काल के सम्बन्ध में कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता, किन्तु जहाँ काल-संकेत दिया गया है वहाँ भी यथार्थ काल निर्धारण में जटिल कठिनाइयाँ उपस्थित हो जाती हैं । ऊपर 'शिलालेखों' के काल-सन्दर्भ में हमने यह देखा था कि एक लेख में 'मुरिय' पढ़ा गया और उसका अर्थ लगाया गया 'मौर्य संवत्' जबकि कुछ विद्वान यह मानते थे कि यह पाठ गलत है, गलत पढ़ कर गलत अर्थ किया गया, अतः मौर्य संवत् की धारणा निराधार है। किन्तु शिलालेखों में 'अंक' भी कभी-कभी ठीक नहीं पढ़े जाते, इसमे काल निर्धारण सदोष हो
1. प्रमाण के लिए बाह्य साक्ष्य का उपयोग किया जाता है। काणे ने रुद्रद के सम्बन्ध में बताया है कि
दसवीं शताब्दी के आगे के कितने ही लेखकों ने रुद्रट का उल्लेख किया है : "राजशेखर ने काव्यमीमांसा" में काकु वक्रोक्ति नाम शब्दालंकारों मिति रुद्रट'।" रुद्रट के एक छन्द को भो उद्धत किया है। प्रती हरिदुराज ने बिना नामोल्लेख किये उसके छंद उद्ध त किए हैं। धनिक की 'दश रूपावलोकन टीका में उद्धत है । लोचन में भी उल्लेख है । मम्मट ने रुद्रट का नाम लेकर आलोचना की है । इस
प्रकार यह सिद्ध हुआ कि रुद्रट 800--850 ई. के बीच हुए। 2. Kane, P. V. --Sahityadarpan (Introduction), p. 37.
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