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250/पाण्डुलिपि-विज्ञान
इस प्रकार से तिथि निर्धारण करने में भी कठिनाइयाँ आती हैं : एक तो यह कठिनाई ठीक पाठ न पढ़े जाने से खड़ी होती है । गलत पाठ से गलत निष्कर्ष निकलेगा। 'हाथी गुंफा' के लेख में एक वाक्य यों पढ़ा गया-"पनंतरिय सन् वस सते राज मुरिय काले ।' स्तेन कोनो ने इसका अर्थ दिया 'मौर्य काल के 165वें वर्ष में। इसी के आधार पर उन्होंने यह निष्कर्ष भी निकाला कि चन्द्रगुप्त मौर्य ने एक संवत् चलाया था जी मौर्यसंवत् (मुरिय काले) कहा गया। अब कुछ विद्वान् इस पाठ को ही स्वीकार नहीं करते । उनकी दृष्टि में ठीक पाठ है-'पानतरीय सब सहसेहि, मुखिय कल वोच्छिन ।" इसमें वर्ष या संवत् या काल का कोई संकेत नहीं। अव यह सिद्ध-सा है कि चन्द्रगुप्त मौर्य ने कोई मौर्य-संवत् नहीं चलाया था।
किन्तु किसी न किसी 'काल-संकेत' से कुछ न कुछ सहायता तो मिलती ही है, और समकालिता एवं ज्ञात मंवत की पद्धति में मन्तोपजनक रूप में नियमित संवत् में कालनिर्धारित किया जा सकता है।
पर काल निर्धारित करने में यथार्थ कठिनाई तब आती है, जब कोई काल संकेत रचना में न दिया गया हो । अधिकांश प्राचीन साहित्य में काल-संकेत नहीं रहते। वैदिक साहित्य का काल-निर्धारण कैसे किया जाय । इतिहास के लिए यह करना तो होगा ही। इस प्रकार की समस्या के लिए वर्ण्य-विषय में मिलने वाले उन संकेतों या उल्लेखों का सहारा लिया जाता है, जिनमें काल की ओर किसी भी प्रकार से इंगित करने की क्षमता होती है । अब इस प्रकार गे काल निर्धारण करने की प्रक्रिया को हम पाणिनि के उदाहरण से समझ सकते हैं :
पाणिनि की अष्टाध्यायी एक प्रसिद्ध ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ से उसकी रचना का 'कालसंकेत' नहीं मिलता । अतः अष्टाध्यायी में जो सामग्री उपलब्ध है उसी के आधार पर समय का अनुमान विद्वानों ने किया है । ये अनुमान कितने भिन्न हैं, यह इसी से जाना जा सकता है कि एक विद्वान ने उसे 400 ई० पू० माना। गोल्डस्टुकर ने अष्टाध्यायी के अध्ययन के उपरान्त यह निर्धारित किया कि पाणिनि यास्क के बाद हुआ और बुद्ध से पूर्व था, क्योंकि अष्टाध्यायी से विदित होता है कि वह बुद्ध से परिचित नहीं था। पार० जी० भांडारकर यह मानते हैं कि पाणिनि दक्षिण भारत से अपरिचित थे, अतः इनकी दृष्टि में पाणिनि 7-8वीं शताब्दी ई० पू० में ही थे । 'पाठक' महोदय पाणिनि को महावीर स्वामी से कुछ पूर्व 'सातवीं शताब्दी ई० पू० के अन्तिम चरण में मानते हैं। डी० आर० भांडारकर ने पहले सातवीं शताब्दी में माना, बाद में छठी शताब्दी ई० पू० के मध्य सिद्ध किया । चार पेंटियर पाणिनि को 550 ई० पू० में विद्यमान मानते हैं, बाद में इन्होंने 500 ई०पू० को अधिक समीचीन माना। होलिक ने 350 ई० पू० का ही माना है । वेवर ने अष्टाध्यायी के एक सूत्र के भ्रमात्मक अर्थ के आधार पर पागिनि को सिकन्दर के प्राक्रमरण के उपरान्त का बताया।
ये सभी अनुमान अष्टाध्यायी की सामग्री पर ही खड़े किये गए हैं। ऐसे अध्ययन का एक पक्ष तो यह होता है कि पाणिनि किन बातों से अपरिचित था, जैसे-गोल्डस्टुकर इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि पाणिनि पारण्यक, उपनिषद्, प्रातिशाख्य, वाजसनेयी संहिता, शतपथ ब्राह्मण, अथर्ववेद तथा पड्दर्शनों में परिचित नहीं थे। अतः निष्कर्ष निकला कि
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