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अध्याय
काल निर्धारण
पाण्डुलिपि प्राप्त होने पर पहली समस्या तो उसे पढ़ने की होती है। इसका अर्थ है । लिपि का उद्घाटन' । इस पर पहले 'लिपि समस्या' वाले अध्याय में चर्चा हो चुकी
दूसरी समस्या उस पांडुलिपि के काल-निर्धारण की होती है। प्रश्न यह है कि काल-निर्धारणा की समस्या खड़ी क्यों और कैसे होती है ?
हमें जो पांडुलिपियाँ प्राप्त होती हैं उन्हें 'काल' की दृष्टि से दो वर्गों में रखा जा सकता है:
एक वर्ग उन पांडुलिपियों का है जिनमें 'काल-संकेत' दिया हुआ है ।
दूसरा वर्ग उनका है जिनमें काल-संकेत का पूर्णतः अभाव है। 'काल-संकेत' से समस्या
सामान्यतः यह कहा जा सकता है कि जिस पांडुलिपि में काल-संकेत हैं, उसके सम्बन्ध में तो कोई समस्या उठनी ही नहीं चाहिये । किन्तु वास्तव में काल-संकेत के कारगा अनेक कठिनाइयाँ और समस्याएं उठ खड़ी होती हैं और कोई-कोई समस्या तो ऐसी होती है कि सुलझने का नाम ही नहीं लेती । उदाहरणार्थ-पृथ्वीराज रासो में संवतों का उल्लेख है । उनको लेकर विाद अाज तक चला है। 'काल-सकेत' के प्रकार
___ वस्तुतः समस्या स्वयं 'काल-संकेत' में ही अन्तमुक्त होती है, क्योंकि 'काल-संकेत' के प्रकार भिन्न-भिन्न पांडुलिपियों में भिन्न-भिन्न होते हैं । इसीलिए काल-संकेत के प्रकारों से परिचित होना आवश्यक हो जाता है।
संकेत-संकेत' का पहला प्रकार हमें अशोक के शिलालेखों में मिलता है। वह इस कप में है:
द्वादसवमामि सितेन मया इदं प्राजापित इसमें अशोक ने बताया है कि मैंने यह लेख अपने राज्याभिषेक के 12वें वर्ष में प्रकाशित कराया।
अन्य लेखों में 'मया', 'मेरे द्वारा' या 'मैने' के स्थान पर 'देवनां प्रिय' या 'प्रियदर्शी' आदि शब्दों का प्रयोग किया गया है; पर प्रायः सभी 'काल-संकेतों का प्रकार यही है कि काल-गणना अपने अभिषेक वर्ष से बतायी गयो है, यथा-राज्याभिषेक के आठवें इक्कीसवें वर्ष में लिखाया, आदि ।
अतः 'काल-संकेत' का पहला प्रकार यह हुआ कि अभिलेख लिखाने वाला राजा
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