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240/पाण्डलिपि-विज्ञान
है, जिसका अर्थ अागे ज्ञान-वर्द्धन के साथ प्राप्त हो । जैसे सांस दुग्रालि के उदाहरण से सिद्ध है।
___ एक प्रश्न यह उठता है कि यदि किसी ग्रन्थ की अन्य प्रतियाँ न मिलती हों, केवल एक ही प्रति उपलब्ध हो, और वह लेखक के हाथ की प्रति न हो तो क्या उसका भी सम्पादन हो सकता है ? सामान्य पाठालोचक कहेगा कि नहीं हो सकता।
किन्तु मैं समझता हूँ कि उसका भी सम्पादन या पाठालोचन हो सकता है। ऐसे ग्रन्थ के सम्पादन के लिए यह आवश्यक है कि आन्तरिक बाह्य साक्ष्य से यह जाना जाय कि ग्रन्थ का रचना-काल क्या था, ग्रन्थ कहाँ लिखा गया ? क्या एक ही स्थान पर लिखा गया ? या, कवि घूमता-फिरता रहा, अतः ग्रन्थ का कुछ अंश कहीं लिखा गया, कुछ कहीं फलतः कागज बदला, स्याही बदली । जिस स्थान पर कवि रहता था, वहाँ का वातावरण कैसा था ? किस प्रकार की भाषा उस क्षेत्र में बोली जाती थी। ऐसे कवि कौनसे हैं जिनसे उसके रचयिता का परिचय था। उसके क्षेत्र में और काल में कौनसे ग्रन्थ लिखे गये और उनकी भाषा तथा शब्दावली कैसी थी? आदि बातों का सम्यक् पता लगाये । ये बाह्य साक्ष्य इस पाठालोचन के लिए महत्त्वपूर्ण हैं।
किन्तु ऐसे पाठालोचन के लिए बाहा साक्ष्य से अधिक महत्त्वपूर्ण है अन्तरंग का ज्ञान कुछ ऐसी ही प्रक्रियाओं से पाठ के उद्घाटन में काम लेना होता है। जिनका उपयोग इतिहास-पूरातत्वान्वेषी शिलालेखों तथा ताम्रपत्रों के पाठ के उद्घाटन के लिए करते हैं
___ इसमें 'अर्थ-न्यास' को अवश्य महत्त्व देना होगा क्योंकि उसी का अनुमान सम्पूर्ण ग्रन्थ के अध्ययन के उपरान्त लगाया जा सकता है। सम्पूर्ण ग्रन्थ का सम्यक अध्ययन करने से शब्दावली और वाक्य-पद्धति का भी संशोधक को इतना परिचय हो जाता है कि वह संदिग्ध अथवा त्रुटित स्थलों की पूर्ति प्रायः उपयुक्त शब्द या वाक्य से कर सकता है। ऐसे अनुमान को सदा कोष्ठकों ( ) में बन्द करके रखना चाहिये । इन कोष्ठकों से यह पता चल सकेगा कि ये स्थल सम्पादक के सुझाव हैं।
ऐसे पाठ निर्धारण में सांख्यिकी (Statistics) का भी उपयोग हो सकता है । शब्दों के कई रूप मिलते हों उनमें कौनसा रूप लेखक का अपना प्रामाणिक हो सकता है इसकी कसोटी सांख्यिकी द्वारा प्रावृत्ति निर्धारित करके की जा सकती है। सांख्यिकी से से शादों के विविध रूपों की आवृत्तियाँ (Frequencies) देखी जा सकती हैं।
जिस ग्रन्थ का सम्पादन किया जा रहा है, उसकी भाषा का व्याकरण भी बना लेना चाहिये। इसके द्वारा वाक्य रचना के प्रामाणिक आदर्श स्वरूप की परिकल्पना हो सकती है । यदि इसके रचयिता की कोई अन्य कृति मिलती हो तो उससे तुलनापूर्वक इस ग्रन्थ के पाठ के कितने ही संदिग्ध स्थलों को प्रामाणिक बनाया जा सकता है ।
ऐसे ग्रन्थों में शब्दानुक्रमणिका देना उपयोगी रहता है ।
पाठानुसंधान (Textual Creticism) भाषा-विज्ञान (Linguistics) का महत्त्वपूर्ण अंग है। अतः इसके सिद्धान्त वैज्ञानिक हो गये हैं। ऊपर उसी वैज्ञानिक पद्धति पर कुछ प्रकाश डाला गया है।
इस वैज्ञानिक पद्धति के प्रचलन से पूर्व हमें पाठ-सम्पादन के कई प्रकार मिलते हैं ।
एक पद्धति तो सामान्य पद्धति थी-किसी ग्रन्थ को एक प्रति मिली, उसके ही आधार पर 'प्रेस-कापी' तैयार कर दी गई। हस्तलिखित ग्रन्थों में शब्द-शब्द में अन्तर नहीं
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