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पाठालोचन/235
पाठान्तर सम्बन्ध की तुलना सभी ग्रन्थों में नहीं हो सकती, क्योंकि कुछ ग्रन्थ तो ऐसे मिलते हैं जिनमें लिपिकार हाशिये में किसी शब्द का पाठान्तर लिख देता है । पद्मावत की प्रतियों में ऐसे पाठान्तर मिले थे। पर अन्य बहुत-से ग्रन्थों में पाठान्तर नहीं लिखे होते । यदि प्रतिलिपियों में पाठान्तर मिलते हैं तो उनकी तुलना से भी मूल पाठ के अनुसंधान में , सहायता ली जा सकती है।
इन तीन सम्बन्धों के द्वारा तुलनापूर्वक जब सबसे अधिक प्रामाणिक पाठ वाली प्रति निर्धारित कर ली जाय तो उसके पाठ को आधार मान सकते हैं, या मूल पाठ मान मकते हैं, किन्तु उसे अभी प्रामाणिक पाठ नहीं कह सकते ।
प्रामाणिक पाठ पाने के लिए यह आवश्यक है कि उक्त पाठ-सम्बन्धों को विवेचना करके पाठसम्पादन के सिद्धान्त निर्धारित कर लिये जायें। इसमें हमें यह देखना होगा कि जिन प्रतियों के पाठ मिश्रण से बने हैं वे प्रामाणिक पाठ नहीं दे सकते, जिन प्रतियों की परम्परा पर दूसरों का प्रभाव कम से कम पड़ा है, वे ही प्रामाणिक मानी जानी चाहिये।
प्रामाणिकता के लिए विविध पाठान्तरों की तुलना अपेक्षित है। तुलनापूर्वक विवेचना करके 'शब्द' और 'चरण' के रूप को निर्धारित करना होगा।
इसमें यह देखना होगा कि यदि कम विकृत पाठ किसी प्राचीन पीढ़ी का है तो वह अतिविकृत बाद की पीढ़ी से अधिक प्रामाणिक होगा ।
इसके साथ ही यह स्पष्ट है कि यदि कोई एक पाठ कुछ स्वतन्त्र पाठ-परम्पराओं में समान मिलता है तो वह निस्संदेह प्रामाणिक होगा। इसी प्रकार अन्य स्वतन्त्र परम्पराओं या कम प्रमाणित परम्पराओं के पाठों का सापेक्षिक महत्त्व स्थापित किया जा सकता है।
क्योंकि कुछ अंश तो ऐसा हो सकता है जो सभी स्वतन्त्र और कम प्रभावित परम्पराओं में समान मिले, कुछ ऐसा अंश होगा जो सब में समान रूप से प्राप्त नहीं, तब तुलना से जिनको दूसरी कोटि का प्रमाण माना है उन पर निर्भर करना होगा। हमें दूसरी कोटि के पाठ को पूर्णतः प्रामाणिक बनाने के लिए "शेष समस्त बाह्य और अन्तरंग सम्भावनाओं के साक्ष्य से ही पाउ-निर्णय करना चाहिए।"
इसे डॉ० माताप्रसाद गुप्ता के 'बीसलदेव रास' की भूमिका में दी गयी प्रक्रिया के एक अंश के उद्धरण से समझाया जा सकता है। डॉ० गुप्त ने विविध प्रतिलिपि-सम्बन्धों का भली प्रकार विवेचन करके उन प्रतियों के पाठ-सम्बन्धों को एक 'वंश-वृक्ष' से प्रस्तुत किया है जो आगे के पृष्ठ पर दिखाया गया है।
___ इस वृक्ष से स्पष्ट प्रतीत होता है कि एक मूल ग्रन्थ से प्रतियों की तीन स्वतन्त्र परम्पराएँ चलीं। इसमें पं० समूह की प्रतियाँ बहुत पहली पीढ़ी की हैं, तीसरी-चौथी पीढ़ी की ही हैं और इस पर 'म' के किसी पूर्वज का, सम्भवतः पाँचवी पीढ़ी पूर्व की प्रति का प्रभाव 'पं' समूह के पूर्व की दूसरी पीढ़ी के पूर्व की प्रति पर पड़ा है, और कोई नहीं पड़ा है । 'म' समूह पर 'स' समूह की दूसरी-तीसरी पीढ़ी पूर्व के प्रभाव पड़े हैं, अन्यथा वह दूसरी स्वतन्त्र धारा है । 'स' तीसरी स्वतन्त्र धारा है । अतः निष्कर्ष निकाले गये कि--
1. गुप्त, माताप्रसाद (०) तथा नाहटा, अगर गंद-बीसलदेव रास, (भभिका), पृ०47 ।
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