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230/पाण्डुलिपि-विज्ञान
(4) 'इ' की मात्रा का प्रयोग 'ए' की मात्रा के लिए भी हुआ है, यथादुहु राय रषत ति रत 'उठि'। विहुरे जन पावस श्रम उठे ।
(मो० 314:5-6) नीयं देह दिषि विरषि ससाने । जिते मोह मज्जा लगये 'प्रासमानि' ।
(मो0 498.35-36) शकुंने मरने जनंगे विहाने । वजे दहुँ दुभिदे विभू 'मनि' ।
(मो० 498.39-40) इस प्रवृत्ति की पुष्टि भी कहीं-कहीं 'इ' की मात्रा के 'ए' की मात्रा के रूप में पढ़े गए होने से होती है, यथा
पिनि गंडु नृप अधनिसा सम दासी 'सूरिात' (सुरिआति)। देव धरह जल धन अनिल कहिग चंद कवि प्रात ।। (मो० 87) पहिचानु जयचन्द इहत ढिलीसुर पेर्षे । नहिन चंदु उनुहारि दुसह दारुण तब दिर्ष ।
(मो० 223-1-2) गहीय चंदु रह गजने जाहाँ सजन जु 'नरेंद' । कबहुँ नयन निरषहूँ मनहु रवि अरविंद ।
(मो० 474) (5) 'इयइ' या 'इये' के स्थान पर प्रायः 'ईई' लिखा गया है, यथा
सोइ एको बान संभरि घनी बीउ बान नह 'संधीइ' ।
धारिपार एक लग मोगरी एक बार नृप टुकीयै। (मो० 544-5-6) हम बोल रिहि कलि अन्तिर देहि स्वामि 'पारथीइ' (पारथयइ) । अरि असीइ लष को अंगमि परणि राय 'सारथीइ' (सारथियइ)।
(मो0 305.5-6) मंगल वार हि मरन की ते पति सधि तन ('पंडियइ)। जेत चढि युथ कमधज सू मरन सब मुष 'मंडीह' (मंडियइ)।
(मो0 309:5-6) क्षिनु इक दरहि 'विलंबिइ' (विलंबियइ) कवि न करि मनु मंदु ।
(मो० 488.2) सह सहाव दर 'दिषीई' ('दिषियइ) सु कछ भूमि पर मिछ। (मो० 479-2) सीरताज साहि 'सोभीइ' (सोभियइ) सुदेसि ।
(मो० 492-17) 'सुनीइ' (सुनियइ) पुन्य सम मझ राज ।
(मो0 52.5) (6) 'इयउ' के स्थान पर प्रायः 'ईऊ' लिखा मिलता हैइम पिचंद 'विरदीउ' (विरदियउ) सु प्रथीराज उनिहारि एहि ।
(मो0 189-6, 190-6) इम जंपि चंद 'विरदीउ' (विरदियउ') षट त कोस चहुवान गयु ।
(मो० 335-6)
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