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204/पाण्डुलिपि-विज्ञान
8वीं शताब्दी के बाद में विकसित) 9. निमित्री (ज्योतिष सम्बन्धी), 10. पारसी, 11. मूयलिबि, मालविणी (मालव प्रदेशीय लिपि), 12. मूलदेवी (चौरशास्त्र के प्रणेता मूलदेव प्रणीत संकेत लिपि), 13. रक्वशी (राक्षसी), 14. लाडलि (लाट प्रदेशीय), 15. सिधविया (सिंधी, 16. हंसलिपि (Arrow headed alphabets) के नाम तो लावण्यममयकृत 'विमलप्रबन्ध' में मिलते हैं और इनसे जूनी (प्राचीन) लिपियों के नाम, 17. जवगालिया अथवा जवणनिया और 18. दामिलि अोर है ।
___'पन्नवणा सूत्र' की प्राचीन प्रति में 18 लिपियों के नाम इस प्रकार हैं :-1. बंगी, 2. जवणालि, 3. दोसापुरिया, 4. खरोट्ठी, 5. पुक्खरसारिया, 6. भोगवइया, 7. पहाराइया, 8. उपअंतरिरिक्खया, 9. अक्खरपिठिया, 10. तेवरणइया (वेवणइया) 11. गिलिगहइया, 12. अंकलिपि, 13. गणितलिपि, 14. गंधव्व लिपि, 15. आदंस (प्रायस) लिपि, 16. माहेसरी, 17. दमिली, 18. पोलिंदी।
_ 'जैन समवायांग सूत्र' की रचना अशोक से पूर्व हुई मानी जाती है। इसमें दी हुई अट्ठारह लिपियों की सूची में ब्राह्मी और खरोष्ठी के अतिरिक्त जिन लिपियों के नाम दिए गए हैं उनमें लिखा हुआ कोई शिलालेख प्राप्त नहीं हुआ है । सम्भवतः वे सभी लुप्तप्रायः हो गई होंगी और उनका स्थान ब्राह्मी ने ही ले लिया होगा।
___ इसी प्रकार 'विशेषावश्यक सूत्र' की गाथा 464 की टीका में भी 18 लिपियों के नाम गिनाये गए हैं-1. हंस लिपि, 2. मुअलिपि, 3. जक्खीतट लिपि, 4. रक्खी अथवा बोधघा, 5. उड्डी; 6. जवणी, 7. तुरुक्की, 8. कीरी, 9. दविडी, 10. सिंधविया, 11. मालविणी, 12. नड़ि, 13. नागरि, 14. लाडलिपि, 15. पारीसी वा बोधघा, 16. तहअनिमितीय लिपि, 17. चाणक्की, 18. मूलदेवी।
'समबायांगसूत्र' और 'विशेषावश्यक' टीका में आयी हुई 18 लिपियों के नामों में बड़ा अन्तर है। 'समवायांग' में ब्राह्मी और खरोष्ठी के नाम पाते हैं परन्तु विशेषावश्यक टीका में एशिया और भारत के प्रदेशों के नामों पर आधारित तथा कतिपय प्रसिद्ध पुरुषों की नामाश्रित लिपियों के नाम देखने को मिलते हैं, यथा-तुरुक्की, सिंधविया, दविडी, मालविणी, पारसी ये देशों के नाम पर हैं और बाणक्की, मूलदेवी आदि व्यक्ति विशेष द्वारा निर्मित हैं । रक्खसी और पारसी दोनों के पर्याय बोधघा दिए हैं। ये दोनों एक ही थीं क्या ? समवायांगसूत्र वाली सूची स्पष्ट है ।
इनमें कुछ तो शुद्ध सांकेतिक लिपियाँ हैं जो अमुक-अमुक वर्णों का सूचन करती हैं और कुछ एक ही लिपि के वर्गों में क्रम-परिवर्तन करके स्वरूप-ग्रहण करती हैं, यथाचाणक्की और मूलदेवी लिपियाँ नागरी के वर्गों में परिवर्तन करके ही उत्पन्न की गयी हैं । वात्स्यायन कृत 'कामसूत्र' में परिगणित 64 कलाओं में ऐसी लिपियों का भी उल्लेख आता हे और इनको 'म्लेच्छित विकल्प की संज्ञा दी गयी है । जब शुद्ध शब्द के अक्षरों में विकल्प या फेरफार करके उसे अस्पष्ट अर्थ वाला बना दिया जाता है तो वह 'म्लेच्छित विकल्प' कहलाता है, यथा- 'क', 'स', 'थ' और 'द' से 'क्ष' तक के अक्षरों को ह्रस्व और दीर्घ तथा अनुस्वार और विसर्ग, इन सबको उल्टा क्रम करके अन्त में क्ष लगाकर लिखने से दुर्बोध्य 'चाणक्यी' लिपि बन जाती है।
प्रक, ख ग, घ ङ, च ट, तप, यश, इनको लस्त अर्थात् अ की जगह क, ख के स्थान पर ग रखने तथा शेष को यथावत् रखने से मूलदेवीय रूप हो जाता है ।
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