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पाठालोचन/219
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ऐ ,, पे ये क्ष, क्र, कु, क्ष प्त ,, प्, पृ सु, मु ष्ठ , व, ष्ट, ष्ट, ब्द त्म ,, त्स, ता, त्य
क क्त ऋ (ख) मुनिजी ने लिपिकार की भ्रान्तियों से शब्दरूपों के परस्पर भ्रान्त लेखन की एक सूची दी है । यह सूचियाँ प्रस्तुत की जा सकती हैं
1. प्रभाव प्रमाद से प्रसव लिखा जा सकता है 2. स्तवन । सूचन , , 3. यच्च , यथा , , 4. प्रत्यक्षतोवगम्या प्रत्यक्ष बोधगम्या 5. नवाँ
तथा 6. नच 7. तदा , तथा ॥ " 8. पर्वत्तस्य , पवन्नस्य, " 9. जीवसालिम्मी कृतं , जीवमात्मीकृत 10. परिवुड्ढि , परितुट्ठि 11. नचैव तदैव 12. अरिदारिणा ,, अरिवारिणी या अविदारिणी 13. दोहल क्खेविया ,, दो हल कबे दिया
कभी-कभी लिपिक अक्षर ही नहीं 'शब्द' भी छोड़ जाता है, दूसरा लिपिक इस कमी का अनुभव करता है, क्योंकि छंद में कुछ गड़बड़ दिखायी पड़ती है, अर्थ में भी बाधा पड़ती है, तो वह अपने अनुमान से कोई शब्द वहाँ रख देता है। लिपिक के कारण वंश-वृक्ष ।
लिपिक को लिखने की दक्षता की कोटि, उसकी लिखावट का रूप कि वह 'अ' या 'म' लिखता है, 'ष' या 'ख' लिखता है, शिरोरेखाएँ लगाता है या नहीं, भ और म में, 'प'
और 'य' में अन्तर करता है या नहीं-ये सभी बातें लिपिकार की प्राकृति-प्रवृत्ति से संबद्ध हैं । इसी प्रकार से प्रत्येक अक्षर के लेखन के साथ उसकी अपनी प्रकृति जुड़ी हुई हैं, जिससे प्रत्येक लिपिकार की प्रति अपनी-अपनी विशेषताओं से युक्त होने के कारण दूसरे लिपिक से भिन्न होगी । अतः वंशवृक्ष में प्रथम स्थानीय सतानें ही तीन लिपिकों के माध्यम से तीन वर्गों में विभाजित हो जायेंगी। इन प्रथम-स्थानीय प्रतियों से फिर अन्य लिपिकार प्रतिलिपियाँ तैयार करेंगे और एक के बाद दूसरी से प्रतिलिपियाँ तैयार होती चली जायेंगी। इस प्रकार एक ग्रंथ का वंशवृक्ष बढ़ता जाता है । इसके लिए उदाहरणार्थ एक वंशवृक्ष का रूप यहाँ दिया जाता है।
!. भारतीय जैन यमण सस्कृति अने लेखन कला, पृ० 79 ।
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