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224 पाण्डुलिपि-विज्ञान
अतः यह मानना ही होगा कि वैज्ञानिक विधि से पाठ-निर्धारण में भी अर्थ का महत्त्व है। हाँ, पाठालोचन की वैज्ञानिक प्रणाली में शब्दों का महत्त्व स्वयं-सिद्ध है। पांडुलिपि-विज्ञान और पाठालोचन
इस दृष्टि से यह भी आवश्यक प्रतीत होता है कि हस्तलेखवेत्ता को 'पाठालोचन' का ऐसा ज्ञान हो कि वह किसी प्रति का महत्त्व आँकने या अँकवाने में कुछ दखल रख सके।
पाठालोचन की प्रक्रिया से अवगत होने पर और कागज, लिपि, वर्तनी तथा स्याही के मूल्यांकन की पृष्ठभूमि पर तथा विषय की परम्परा के प्ररिप्रेक्ष्य में वह उस ग्रन्थ पर सरसरा मत निर्धारित कर सकता है। यह मत उस प्रति के उपयोगकर्ताओं और अनुसंधित्सुनों को 'अनुसंधेय धारणा' (Hypothesis) के रूप में सहायक हो सकता है ।
स्पष्ट है कि पाठालोचन का ज्ञान पांडुलिपि-विज्ञानवेत्ता को पाठालोचन की दृष्टि से नहीं करना, वरन् इसलिए करना है कि उस ज्ञान से ग्रन्थ की उस प्रति का मूल्य आँकने में कुछ सहायता मिल सकती है, और वह उसके आधार पर ग्रन्थ-विषयक बहुत-सी भ्रान्तियों से भी बच सकता है। पाठालोचन वास्तविक पाठ तक पहुंचने की वैज्ञानिक प्रक्रिया है और पाठ 'ग्रन्थ' का ही एक अंग है, और वह ग्रंथ उसके पास है, अतः अपने ग्रन्थ के अन्य अवयवों के ज्ञान की भांति ही इसका ज्ञान भी अपेक्षित है। पाठालोचन-प्रणालियाँ
___पाठालोचन की एक सामान्य प्रणाली होती है । सम्पादक पुस्तक का सम्पादन करते समय जो प्रति उसे उपलब्ध हुई है, उसी पर निर्भर रह कर, अपने सम्पादित ग्रन्थ में वह उन दोषों को दूर कर देता है, जिन्हें वह दोष समझता है। इसे 'स्वेच्छया-पाठ-निर्धारणप्रणाली' का नाम दे सकते हैं।
दूसरी प्रणाली को 'तुलनात्मक-स्वेच्छया-सम्पादनार्थ-पाठ-निर्धारण' की प्रणाली कह सकते हैं। सम्पादक को दो प्रतियाँ मिल गयीं। उसने दोनों की तुलना की, दोनों में पाठभेद मिला, तो जो उसे किसी भी कारण से कुछ अच्छा पाठ लगा, वह उसने मान लिया। ऐसे सम्पादनों में वह पाठान्तर देने की आवश्यकता नहीं समझता । हाँ, जहाँ वह देखता है कि उसे दोनों पाठ अच्छे लग रहे हैं वहाँ वह नीचे या मूलपाठ में ही कोष्ठकों में दूसरा पाठ भी दे देता है।
- इसी प्रणाली का एक रूप यह भी मिलता है कि ऐसे विद्वान् को कई ग्रन्थ मिल गये तब भी पाठ-निर्धारण का उसका सिद्धान्त तो वही रहता है कि स्वेच्छया जिस पाठ को ठीक समझता है, उसे मूल में दे देता है। इस स्वेच्छया पाठ-निर्धारण में उसकी ज्ञानगरिमा का योगदान तो अवश्य रहता है, एक पाठ स्वेच्छया स्वीकार कर वह उसे ही प्रामाणिक घोषित करता है-इसकी प्रामाणिकता सिद्ध करने के लिए वह कवि-विषयक अपने पाण्डित्य का सहारा लेता है, और कवि की भाषा सम्बन्धी विशेषताओं की भी दुहाई देता है । किन्तु यथार्थतः इस सम्पादन में पाठ के निर्धारण में वस्तुतः अपनी रुचि को ही महत्त्व देता है, फिर उसे ही कवि का कर्तत्व मान कर वह उसे सिद्ध करने के लिए कवि के तत्सम्बन्धी वशिष्टय को सिद्ध करता है। अपनी इस प्रणाली की चर्चा वह भूमिका में कर देता है। हाँ, जब उसे दो प्रतियों के पाठों में यह निर्धारित करना कठिन हो जाता है कि किसमें
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