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206/पाण्डुलिपि-विज्ञान
हमारे बचपन में चटशालाएं चलती थीं। चटशालाएँ सम्भवतः चेट्टिशाला का रूपान्तर हैं । चेट्टि शब्द शिष्य का वाचक है। चटशाला के बड़े छात्र या अध्यापक को जोशीजी कहते थे । मानीटर को 'वरचट्टी' कहा जाता था। उन दिनों पहले एक पटरे पर गेरू या लाल मिट्टी बिछा कर लकड़ी के 'बरते' से अक्षर लिखना सिखाया जाता था। फिर लकड़ी की पाटी पर मुल्तानी पोत कर नेजे (सरकण्डे) की कलम और गोंदवाली काली स्याही से सुलेख लिखाया जाता था। इसको 'अक्षर जमाना' कहते थे। पहले वर्णमाला फिर गणित पाटी आदि तो लिखाते ही थे, परन्तु बड़े छात्रों को 'सिद्धा' अर्थात् कातन्त्र सूत्र "सिद्धो वर्णाः' लिखाते थे--पर साथ ही, हमें याद है कि एक 'दातासी' लिपि भी लिखाई जाती थी। इसको जानने वाला सबसे चतुर छात्र समझा जाता था-स्वर तो वही रहते हैं, परन्तु 32 व्यंजनों के लिए ये अक्षर होते थे :
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10
श्री दा - ता - ध - न - को - स - मा - वो - वा - ल 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 म-हि - ष - गो - घ - टी - प्रा - ई -पू - छ -ज-डा-थ-ढा 25 26 27 28 29 30 31 32 इति दातासी। उ-च-री- य-ठ-रण -- झ - फू इसका दूसरा सूत्र इस प्रकार है
दाता धरण कोस भावं, बाला महं खगं घटा । आशा पीठं जढे षण्डे, चयं रिच्छं थनं झफा ।।
इति दातासी। वर्ण विपर्यय द्वारा लिखी जाने वाली एक सहदेवी विधि भी है, जिसका क्रम इस प्रकार है :
प्रप । फब । मम । कच । खछ । गज । घझ । ङञ । टत । ठथ । डद । ढध । णन । हय । शव । रस । लष ॥
इति सहदेवी
लिपि व्यावहारिक समस्यायें :
यहाँ तक हमने ऐतिहासिक दृष्टि से लिपि के स्वरूप पर विचार किया है । साथ ही विविध लिपियों की वर्णमालाओं पर भी प्रकाश डाला है। पांडुलिपि-विज्ञान के अध्येता
और अभ्यासी को तो आज विविध ग्रन्थागारों में उपलब्ध ग्रन्थों का उपयोग करना पड़ता है । इन ग्रन्थों में देवनागरी के ही कुछ अक्षरों के ऐसे रूप मिलते हैं कि उन्हें पढ़ना कठिन होता है । इस दृष्टि से ऐसे कुछ अक्षरों का ज्ञान यहाँ करा देना उपयुक्त प्रतीत होता है ।
___एक अनुसन्धानकर्ता गुजरात के ग्रन्थागारों के ग्रन्थों का उपयोग करने गये तो उन्हें एक प्रतिष्ठित प्राचार्य ने ऐसे ही विशिष्ट अक्षरों की एक अक्षरावली दी थी और उस अक्षरावली के कारण उन्हें वहाँ के ग्रन्थों को पढ़ने में कठिनाई नहीं हुई। वह अक्षरावली
1. सत्येन्द्र (डॉ०)-अनुसन्धान, पृ. 111।
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