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212/पाण्डुलिपि-विज्ञान
ग > म । स्याही की अधिकता, पन्ने का फटना, स्याही का फैलना तथा लिखे
हुए पर लिखने के कारण कुछ का कुछ पढ़ना मिलता है । इससे अर्थ का अनर्थ बहुत हुआ है।
च > वय थ
झ> भुया भु > झ । फ > पु। पु >फ । बंगला लिपि के अनुसार लिखित 'उ' में यथा
झम > भुम । यहाँ भ में '(उ) की मात्रा मिलायी गयी है, इससे
'भ' 'झ' लगने लगा है। ट >ठ। ठ>ट।
> उ। उ> ड।
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द
> ब ।
ब
द ।
ख > स्त (द्विवत्य युक्त त्) लत <त्तत
व > न । न जलन
व
> न।
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स> य्य त्र> प्त । त (त्र)
दृष्टव्य है कि इस वर्ग के अन्तर्गत जो उदाहरण मिलते हैं, वे अमेक हैं और प्रत्येक लिपिकार के अनुसार बदलते, घटते-बढ़ते रहते हैं । 'मक्षिका स्थाने मक्षिका पात' के सिद्धान्त पालन करने वाले मामूली पढ़े-लिखे लिपिकार ऐसी भूलें किया करते हैं । (द) विशिष्ट वर्ण-चिह्न
य और व के नीचे बिन्दी लगाने की प्रथा राजस्थान में बहुत पुराने काल से है । इनको क्रमशः य और व लिखा जाता है। पुराने ढंग की पाठशालाओं में वर्णमाला सिखाते समय 'ववा तकै स बींदली' तथा 'ययियो पेटक' और 'ययियो वींदक' बताया जाता था। ववा तले स वींदली अर्थात् 'व' के तले बिन्दी (व) । ययियो पेटक अर्थात् य शुद्ध । ययिया वींदक अर्थात् य के नीचे बिन्दी (य)। 17वीं शताब्दी तक य य दो पृथक ध्वनियाँ थीं, इसके संकेत रूप में प्रमाण मिलते हैं। उसके पश्चात् शब्द के आदि के य को तो प और बीच के प को य करके लिखा जाता रहा । अठारहवीं शताब्दी और उसके बाद की प्रतियों में प्रत्येक 'य' को 'य' करके ही लिखा जाने लगा चाहे आदि में हो या मध्य में या अन्त में । य (प्र) और (य) के बीच ध्वनि (yeh, yes को yeh जैसे बोलते हैं) रही थी। इसी प्रकार व और व में अन्तर है। व को W और ब को V की सी ध्वनियाँ मान सकते हैं । तात्पर्य यह है कि प्राचीन लिपि में बिन्दी लगाई जाती थी जो अर्थ-भेद स्पष्ट करने का प्रयास था । अठारहवीं शताब्दी से (य, य) की भाँति व व को भी व करके लिखा जाने लगा।
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