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166/पाण्डुलिपि-विज्ञान
6-घनिष्ठ मित्रों आदि में आपस में दिये
जाते थे-उदाहरणार्थ(धर्म-भाई बनाते समय, धर्म-बहिन बनाते
समय, पवित्र स्थानों में) ... पोथो, पोयी, गुटका
इनमें भी पृष्ठ संख्या लगाने की पद्धति भी उपरिवत् है, प्रकार में यत्किचत् भेद है। इन तीनों में ही 'लेजर' की भांति 'फोलियो' संख्या रहती है। हमें 'फोलिया' शब्द ग्रहण कर लेना चाहिए। पृष्ठ संख्या की पद्धति : 1. बायें पन्ने के ऊपर प्रारम्भिक पंक्ति के बराबर या उससे कुछ नीचे संख्या दी जाती
है। यही संख्या दायें पन्ने के दायें हाशिये के ऊपर इसी प्रकार लगाई जाती है।
इनमें संख्या सामान्यतः ऊपर की ओर ही देने की परिपाटी रही है । 2.
दूसरा रूप इस प्रकार है : बायें पन्ने के ऊपर (उपरिवत्) तथा दायें पन्ने के दायें हाशिये में नीचे की ओर । यह पद्धति विशेष सुविधाजनक रहती है। एक ओर के किनारे नष्ट होने पर भी शेषांश बचा रहने पर इस संख्या का पता लगाया जा सकता है। पृष्ठ संख्या (फोलियो संख्या से तात्पर्य है) पोथो, पोथी, गुटका आदि में कहाँ तक दी जाय, इसके लिए दो परिपाटियाँ रही हैं(क) आदि से लेकर बीच की सिलाई के दायें पन्ने तक । . (ख) आदि से लेकर अन्तिम पन्ने तक । विशेष : (ख) में दी गयी स्थिति में यदि अन्त में एक ही पन्ना हो और वह बायाँ
हो सकता है, तो भी उसी ढंग से संख्या दी जाती थी। इसकी
गणना ठीक उसी रूप में की जाती थी जिसमें शेष 'फोलियो' की। इनमें भी रचना का प्रथम अक्षर संख्या के नीचे लिखा रहता है किन्तु केवल बायें पन्ने की संख्या के नीचे ही । इन तीनों के विषय में ये बातें विशेष रूप से लागू होती हैं :(क) यदि संकलन-ग्रन्थ है, तो भिन्न रचना का नाम (उसका प्रथम अक्षर लिखा
जायेगा)। (ख) यदि हरजस, पद आदि विषयक ग्रन्थ है (जो संकलन ही है) तो उसमें 'ह०'
या 'भ०' (भजन), गी० (गीत) आदि लिखा मिलता है। (ग) यदि एक ही रचना है, तो स्वभावतः उसी के नाम का प्रथम अक्षर लिखा
जायेगा। सिलाई 1. पत्राकार पुस्तकों में
(क) खुले पत्रों के रूप में (स्त्र) बीच में छेद वाले रूप में
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