________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
लिपि-समस्या/175
है जिसके अवयवों में वह अन्तर नहीं करता होता है-यथा, वह कहता है
(i) “मैंखानाखाताहूँ"
यह पूरा वाक्य उसके लिए एक इकाई है। फिर उसे ज्ञान होता है अवयवों का। यहाँ पहले विकास के इस स्तर पर दो अवयव ही हो सकते हैं, (i) 'मैं' तथा (ii) खाना खाता है। इस प्रकार उसे भाषा में दो अवयव मिलते हैं-अब वह अन्य अवयवों को भी पहचान सकता है । इन अवयवों के बाद वह शब्दों पर पहुँचता है, क्योंकि जैसे वह अपने लिए 'मैं' को अलग कर सका, वैसे ही वह खाद्य पदार्थ के लिए 'खाना' शब्द को भी अलग कर सका-अब वह जान गया कि मैंने चार शब्दों से यह वाक्य बनाया था
___1 2 3 4 (iii) मैं खाना खाता हूँ
सांस्कृतिक विकास से उसमें यह चेतना आती है कि ये शब्द ध्वनि-समुच्चय से बने हैं । इनमें ध्वनि-इकाइयों को अलग किया जा सकता है-यहीं ध्वनि में स्वर और व्यंजन का भेद भी समझ में आता है । अब वह विकास के उस चरण पर पहुँच गया है जहाँ अपनी एक-एक ध्वनि के लिए एक-एक चिह्न निर्धारित कर वर्णमाला खड़ी कर सकता है । यहीं लिपि का जन्म होता है : हमारी लिपि में उक्त वाक्य के लिपि चिह्न ये होंगे :-मैं-म+ + /खाना-ख++न+T/खाता-ख+T+त+/हूँ=ह + + ।
ये लिपि चिह्न भी हमें लिपि विकास के कारण इस रूप में मिले हैं। चित्र-लिपि :
किन्तु वर्णमाला से भी पहले लेखन या लिपि का आधार चित्र थे। चित्रों के माध्यम से मनुष्य अपनी बात ध्वनि-निर्भर वर्णमाला से पहले से कहने लगा था। चित्रों का संबंध ध्वनि या शब्दों से नहीं वरन् वस्तु से होता है । चित्र वस्तु की प्रतिकृति होते हैं । भाषावह भाषा जिसका मल भाषण या वाणी है, इस भाषा से पूर्व मनुष्य 'संकेतों से काम लेता था । संकेत का अर्थ है कि मनुष्य जिस वस्तु को चाहता है उसका संकेत कर उसके उपयोग को भी संकेत से बताता है-यदि वह लड्डू खाना चाहता है तो एक हाथ की पाँचों उंगलियों के पोरों को ऊपर ऐसे मिलायेगा कि हथेली और अंगुलियों के बीच ऐसा गोल स्थान हो जाये कि उसमें एक लडडू समा सके, फिर उसे वह मुंह से लगायेगा--इसका अर्थ होगा-'मैं लड्डू खाऊंगा'। इसमें एक प्रकार से चित्र प्रक्रिया ही कार्य कर रही है । हाथ की आकृति लड्डू का चित्र है, उसे मुख से लगाना लड्डू को मुंह में रखने का चित्र है । गूगों की भाषा चित्र-संकेत-भाषा है।
मनुष्य ने चित्र बनाना तो आदिम से आदिम स्थिति में ही सीख लिया था। प्रतीत यह होता है कि उन चित्रों का वह पानुष्ठानिक टोने के रूप में प्रयोग करता था ।
फिर वह चित्र बनाकर अन्य बातें भी दर्शित करने लगा। इस प्रयत्न से चित्रलिपि का प्रारम्भ हुआ । इस प्रकार से देखा जाये तो चित्रलिपि का आधार वाणी, बोली या भाषा नहीं, वस्तुबिम्ब ही है। वस्तुबिम्ब को रेखाओं में अनुकूल करने से चित्र बनता है । आदिम अवस्था में ये रेखाचित्र स्थूल प्रतीक के रूप में थे। उसने देखा कि मनुष्य के सबसे ऊपर गोल सिर है, अतएव उसकी अनुकृति के लिए उसकी दृष्टि से चिह्न एक वृत्त ० होगा । यह सिर गरदन से जुड़ा हुआ है, गरदन कन्धे से जुड़ी है । यह उसे एक ' छोटी सीधी खड़ी रेखा-सी लगी । कन्धा भी उसे पड़ी सीधी रेखा के समान दिखायी दिया
For Private and Personal Use Only