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पाण्डुलिपियों के प्रकार/181 'चित्रलिपि' में प्रायः रेखाकारों में छोटे-छोटे चित्रों द्वारा संप्रषण सिद्ध होता था। इसी लिपि का नाम 'हिमरोग्लाफिक' लिपि है। यह मिस की पुरातन लिपि है। कैलीफोनिया और एरिजोना में भी चित्र लिपि मिली है। ये भी प्राचीनतम लिपियाँ मानी जाती हैं। ऐस्किमो जाति और अमेरिकन इण्डियनों की चित्र-लिपि को ही सबसे प्राचीन माना जाता है।
मिस्र के अलावा हिट्टाइट, माया (मय ?) और प्राचीन क्रीट में भी चित्रलिपि या हिअरोग्लाफ मिले हैं।
हिग्ररोग्लाफ का अर्थ मिस्री-भाषा में होता है, पवित्र अंकन', इसे यूनानियों ने 'दैवी शब्द' (Gods Words) भी कहा है । स्पष्ट है कि इस लिपि वा उपयोग मिस्र में धार्मिक अनुष्ठानों में होता रहा होगा।
इस चित्रलिपि का मिस्र में उदय 3100 ई० पू० से पहले हुना होगा।
पहले विविध वस्तु-बिम्बों के रेखाकारों को एकसाथ ऐसे संजोया गया कि उसका 'कथ्य-दृश्य' पाठक की समझ में पा जाय । इसमें जन-जन द्वारा मान्य बिम्ब लिए गये । ये चित्रलिपि कभी-कभी बहुत निजी उद्भावना भी हो सकती है, इस स्थिति में ऐसे चित्र प्रस्तुत किये जाते हैं जिनको प्राकृतियाँ सर्वमान्य नहीं होती।
फिर भी, इस भाषा में अधिकांश बहुमान्य बिम्ब प्राकृतियों का उपयोग ही होता है । इन्हीं के कारण यह लिपि इस रूप में आगे विकास कर सकी।
पहली स्थिति में एक बिम्ब-चित्र उस वस्तु का ही ज्ञान कराता था, जैसे 'O' यह बिम्बाकार सूर्य के लिए गृहीत हुना । मनुष्य एक घुटने पर बैठा, एक घुटना ऊपर उठा दुपा और मुंह पर लगा हुअा हाथ-इस प्राकृति का अर्थ था 'भोजन करना।
. इसका विकास इस रूप में हुआ कि वही पहला चित्र एक वस्तु-बिम्ब का अर्थ न देकर उसी से सम्बद्ध अन्य अर्थ भी देने लगा-जैसे 0 इसका अर्थ केवल सूर्य नहीं रहा, वरन् सूर्य का 'देवता रे (Re) या रा (Ra) भी हो गया और 'दिन' भी। इसी प्रकार 'मुख पर हाथ' वाली मानवाकृति का एक अर्थ 'चुप' भी हुमा । स्पष्ट है कि इस विकास में पूर्वाकृति बस्तुबिम्ब के यथार्थ से हटकर प्रतीक का रूप ग्रहण कर रहे विदित होते हैं।
वे बाद में इस चित्रलिपि के चित्राकार ध्वनि-प्रतीकों का काम देने लगे।
इस अवस्था में चित्रों के माध्यम से मनुष्य जो भी अभिव्यक्त कर रहा था, वह भाषा का ही प्रतिरूप था। प्रत्येक चित्रकार के लिए एक बिम्ब-चित्र एक शब्द था । कुछ चित्राकार जब व्यंजन-ध्वनियों के प्रतीक बने तो वे उस शब्द के प्रथमाक्षर की ध्वनि से जुड़े रहे । जैसे 'शृङ्गीसर्प' के लिए शब्द था 'पत' (ft) । इसकी प्रथम ध्वनि 'फ' से यह 'शृङ्गीसर्प' जुड़ा रहा । अर्थात् 'शृङ्गीसर्प' अब 'फ' व्यंजन के लिए 'वर्ण' का काम कर उठा था।
इस प्रकार हमने देखा कि हम विकास में 'लिपि', जिसका अर्थ है 'ध्वनि-प्रतीक' वाली वर्णमाला, ऐसी लिपि की ओर हम दो कदम आगे बढ़े ।
5. प्रतीक चित्राकृति-चित्रलिपि में आये स्थूल चित्र जब प्रतीक होकर उस मूल बिम्बाकृति द्वारा उससे सम्बन्धित दूसरे अर्थ भी देने लगे तब वह प्रतीक अवस्था में पहुँची ।
1. शृगीसर्प-सींग वाला साप ।
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