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104, पांडुलिपि-विज्ञान
लिपिकाल--सं० 1833 (एक लिखावट के कारण) फोलियो ! ले 8 तक, रचना
पूर्ण है। विवरण
कवि चंद के हित हरिवंश हरिव्यासी सम्प्रदाय के हैं । इसमें इन्होंने नागरीदास का भी नाम लिया है । सुन्दर ब्रजभाषा में कवित्त सवैया में रचना है । अभिभावनायुक्त सुन्दर 26 पद हैं । रचनाकार ने इसका नाम मनो-अभिलाषा रखा है।
उदाहरणार्थ 'अमिलाष पच्चीसी' में से कुछ पद प्रस्तुत हैं :प्रारम्भ---
जाति पाति नाना भाँति कुल अभिमान तजि निसी दिन सीस को नवाऊं रसिकन मैं । सेवा कुज मण्डल पुलिन वंशीवट निधिवन औ समीर धीर बिचरौ मगन में । लता द्रुम हेरो राधाकृष्ण कहि टेरौं, रज लपटाऊ तन मैं औ सुख पाऊ मन मैं । अहो राधा वल्लभ जू तुम ही सौ विनती है जैसे बन तैसी मोहि राखौ वृन्दवन में ।।
सध्य
वह वन भूमि द्रुम लता रही झमि लेतो त्रिविधी समीर सौ रुस्ति लहकि लहकि । फुली नव कुज तहां भंवर करत गुज सदा सुख पुंज रहयौ सौरभ मकि महकि । कौकिल मयूर सुक सारों आदि पक्षी सब दम्पति रिझावत है गावत गहकि गहकि । हित सौ जे देखें नित तिनकी दो कहा कहौं । बात ही मैं चन्द चित जात है बहकि बहकि ।।
अन्त
ढोलक मृदंग मुह चंग और उमंग चंग गदायरो तंबूरा बीन आदि सब साज है। इनको भिलाइबो परन उपजाईबो सरस रंग छाईबौ प्रवीनन को काज है। कर सौ तो कर प्रो सुधर होत जैसे सब सौज तैसे रसिक रयाज है। जब मिल संगी चन्द रस रंगी
तब रंग जाम टुटै भव पाज है। (ब) रचना-समय पचीसी रचनाकार--कवि चंद हित
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