________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
140/पाण्डुलिपि-विज्ञान
सुमति नृपति भोजेनोद्धृतं तत्क्रमेण
ग्रथितभवतु विश्वं मिश्रकाशीश्वरेण ।। इससे पता चलता है कि रचनाओं को प्रस्तर-शिलाओं पर अंकित कराने की प्रथा बहुत पुरानी है । भोजराज से पूर्व महानाटक की रचना हो चुकी थी अतः इसका शिलांकन ईसा की दसवीं शताब्दी में हुआ होगा । सम्भव है, इससे भी पूर्व हुआ हो । दूसरी बात यह है कि यद्यपि इन शिलाओं को प्रत्यक्ष तो नहीं देखा जा सका परन्तु यह तो कहा ही जा सकता है कि किसी बड़ी रचना के शिलोत्कीर्ण होने की यही सबसे पुरानी सूचना है।
राजस्थान में मेवाड़ प्रदेश के बिजोलियां ग्राम के पास एक जैन मन्दिर है, उसके निकट ही एक चट्टान पर 'उन्नत-शिखर पुराण' खुदा हुआ है। यह पोखाड़ सेठ लोलार्क द्वारा संवत् 1226 में खुदवाया गया था । इस चट्टान के पास ही एक दूसरी चट्टान पर उक्त मन्दिर से ही सम्बद्ध एक और लेख खुदा हुआ है जिसमें चाहमान से लेकर पृथ्वीराज के पिता सोमेश्वर तक पूरी वंशावली उत्कीर्ण है और साथ ही लोलार्क सेठ के वंश का वर्णन भी दिया हुआ है।
____ इसी प्रकार अजमेर के प्रसिद्ध अढ़ाई दिन के झोंपड़े से कुछ शिलाएँ प्राप्त की गई थीं जो अब अजमेर के संग्रहालय में रखी हुई हैं। यह 'अढ़ाई दिन का झोंपड़ा' नामक इमारत पहले बीसलदेव चौहान (विग्रहराज) द्वारा संस्थापित पाठशाला थी। इसमें उसी राजा के द्वारा रचित 'हरकेलि' नामक नाटक शिलोत्कीर्ण करके सुरक्षित किया गया था जिसकी दो शिलाएं उक्त म्यूजियम में विद्यमान हैं। सोमेश्वर कवि रचित 'ललित विग्रहराज नाटक' की दो शिलाएँ तथा चौहानों से सम्बन्धित एक और काव्य की एक शिला भी उसी संग्रहालय में मौजूद हैं।
राजस्थान में ही मेवाड़ के महाराणा कुम्भकर्ण की रचनाएँ भी शिलाओं पर खुदवाई गयी थीं जिनका नमूना उदयपुर के म्यूजियम में देखा जा सकता है। बाद में महाराणा राजसिंह (प्रथम) ने भी रणछोड़ भट्ट रचित 'राज-प्रशस्ति' नामक काव्य 24 शिलानों पर खुदवाकर राजसमंद सरोवर पर लगा कर चिरस्थायी बनाया।
धाराधीश्वर सुप्रसिद्ध विद्वान् राजा भोज ने भी अपने नगर में 'सरस्वती कण्ठाभरण' नामक पाठशाला स्थापित की थी। यह स्थान प्राजकल 'कमलमौला' नाम से जाना जाता है। उक्त पाठशाला में राजा भोज ने स्वरचित 'कूर्मशतक (प्राकृत) काव्य' और राजकवि मदन विरचित 'पारिजातमंजरी' नामक नाटिका को शिलांकित करवाया था।
ग्वालियर के पद्भनाथ देवालय (सास बहू का मन्दिर) में कछवाहा वंश का एक प्रशस्ति शतक शिलोत्खचित है जो एक उत्तम काव्य की श्रेणी में रखा जा सकता है। इस शतक में कच्छपघातवंशतिलक लक्ष्मण तत्पुत्र गोपगिरि (ग्वालियर) दुर्गाधीश्वर वज्रदामा में लेकर पद्मपाल नामक राजा तक का वर्णन है। इस राजा ने इस मन्दिर का निर्माण कराकर ब्राह्मणों को पुष्कल दान दिया था। शतक का कवि मणिकण्ठ था जो भारद्वाज गोत्रीय रामकवीन्द्र का पौत्र और गोविन्द कवि का पुत्र था । संवत् 1150 वि. में मणिकंठ सूरि की इस रचना के वर्गों को यशोदेव दिगम्बरार्क ने लिखा । इसकी रचना के संबत् 1149 का निम्न श्लोक में उल्लेख किया गया है :.
For Private and Personal Use Only