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पाण्डुलिपियों के प्रकार / 149
जाता था । प्रत्येक पत्र के मध्य में बाँधने की डोरी पिराने के लिए एक छिद्र बनाया जाता था । लिखित पत्रों से अपेक्षाकृत मोटे पत्र सुरक्षा के लिए प्रति के ऊपर-नीचे लगाए जाते थे । कभी-कभी लकड़ी के पटरे भी इस कार्य के लिए प्रयुक्त किए जाते थे । इन मोटे पत्रों पर ग्रन्थ के स्वामी और उसके उत्तराधिकारियों के नाम लिखे जाते थे अथवा उनके जीवन में अथवा परिवार में हुई महत्त्वपूर्ण घटनाओं का भी लेख कभी-कभी अंकित किया जाता था । इन अतिरिक्त पत्रों को 'बेटी पत्र' कहते हैं (आसाम में 'बेटी' शब्द दासीपुत्री के रूप में प्रयुक्त होता है) । बाँधने का छिद्र प्रायः दाएँ हाथ की ओर मध्य में बनाया जाता था और इसमें बहुत बढ़िया मुगा अथवा एण्डी का धागा पिरोया जाता था जिसको 'नाड़ी' कहते थे । 18वीं शताब्दी में लिखे गए शाही ग्रन्थों में ऐसे छिद्रों के चारों ओर बेलबूटे और फारसी ढंग की सजावट तथा कभी-कभी सोने का काम भी दिखाई देता है ।
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लिखिने तथा चित्रित करने से पूर्व इन पत्रों को चिकना और मुलायम बनाने के लिए प्राय: 'माटीमाह' का ही लेप किया जाता है परन्तु कभी-कभी बतख के अण्डे भी काम में लाये जाते हैं । हरताल का प्रयोग पत्रों को पीला रंगने के लिए तो करते ही हैं, साथ ही यह कृमि नाशक भी है। जब प्रति तैयार हो जाती है तो वह गन्धक के धुएँ में रखी जाती है, इससे यह विनाशक कृमियों से मुक्त हो जाती है । आहोम के दरबार में हस्तप्रतियों, दस्तावेजों, मानचित्रों और निर्माण सम्बन्धी प्रालेखों की सुरक्षा के लिए एक विशेष अधिकारी रहता था जो 'गन्धइया बरुप्रा' कहलाता था ।
इस प्रकार तैयार किये हुये पत्रों को आसाम में 'साँचीपात' कहते हैं । कोमलता और चिक्कणता के कारण ये पत्र दीर्घायुषी होते हैं और कितने ही स्थानों पर बहुत सुन्दर रूप में इनके नमूने अब तक सुरक्षित पाये जाते हैं । परन्तु ये सब 15 वीं - 16वीं शताब्दी से पुराने नहीं है, हाँ अगर पत्रों का सन्दर्भ बाणकृत 'हर्षचरित' के सप्तम उच्छ्वास में मिलता है । बाण महाकवि हर्षवर्द्धन का समकालीन था और इसलिए उसका समय 7वीं शताब्दी का था । कामरूप का राजा भास्कर वर्मा भी हर्ष का समकालीन, मित्र और सहायक था । उसने सम्राट के दरबार में भेंटस्वरूप कुछ पुस्तकें भेजी थीं जो अगरु की छाल पर लिखे हुए सुभाषित ग्रन्थ थे ।
"अगरुवल्कल-कल्पित-सञ्चयानि च सुभाषितभाञ्जि पुस्तकानि परिणतपाटल
पटोलत्विषि ...1
बौद्धों के तान्त्रिक ग्रन्थ 'प्रार्य मञ्जुश्री कल्प" में भी प्रगरुवल्कल पर यन्त्र-मन्त्र लिखने का उल्लेख मिलता है और इस प्रकार इसके लेखाधार बनने का इतिहास और भी पीछे चला जाता है ।
1. हर्षचरित (सप्तम उच्छ्वास) ।
2. त्रिवेन्द्रम सीरीज, भाग 1, पृ. 131 |
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महाराजा जयपुर के संग्रहालय में प्रदर्शित महाभारत के कुछ पर्व भी सांचीपात पर लिखे हुए हैं ।
कागजीय
यों तो लेख और लेखागार दोनों के लिए संस्कृत में 'पत्र' शब्द का ही प्रयोग अधिकतर पाया जाता है, परन्तु बाद के साहित्य में और प्रायः तन्त्र साहित्य में 'कागद'
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