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पाण्डुलिपियों के प्रकार 153
प्रतिमा के पीछे वाली दीवार पर लटकाने के सचित्र पट भी इसी प्रकार से बनाने का रिवाज है । इनको पिछवाई कहते हैं। नाथद्वारा में श्रीनाथजी की पिछवाइयाँ बहुमूल्य होती हैं । राजस्थान में बहुत-से कथानकों को भी पटों पर चित्रित कर लेते हैं जो ‘पड़' कहलाते हैं । ऐसे चित्रों को फैलाकर लोकगायक उनके संगीतबद्ध कथानकों का गान करते हैं । पानी की पड़, रामदेवजी की पड़, आदि का प्रयोग इस प्रदेश में सर्वत्र देखा जा सकता है।
महाराजा जयपर के संग्रह में अनेक तान्त्रिक नक्शे. देवचित्र एवं इमारती खाके विद्यमान है जो 17वीं एवं 18वीं शताब्दी के हैं । कोई-कोई और भी प्राचीन हैं परन्तु वे जीर्ण हो चले हैं। इनमें महाराजा सवाई जयसिंह द्वारा सम्पन्न यज्ञों के समय स्थापित मण्डलों के चित्र तथा जयपुर नगर संस्थापन के समय तैयार किए गये प्रारूप-चित्र दर्शनीय हैं । इसी प्रकार संग्रहालय में प्रदर्शित राधाकृष्ण की होली के चित्र भी पट पर ही अंकित हैं और उत्तर 17वीं शती के हैं । दक्षिण से प्राप्त किए हुए छः ऋतुओं के विशाल पट चित्रों पर विविध अवस्थाओं में नायिकायें निरूपित हैं । ये चित्र भी कपड़े पर ही बने हैं और बहुन सुन्दर हैं। जिस व
पर मोम लगाकर उसे चिकना बनाया जाता था, उसे मोमिया कपडा या पट कहते थे । एसे कपड़ों पर प्रायः जन्म-पत्रियाँ लिखी जाती थीं। ये जन्म-पत्रियाँ पट्टियों को चिपका कर बहुत लम्बे-लम्बे आकार में बनाई जाती थीं। इन पर लिखी हुई सामग्नी इतनी विशद और विशाल होती थी कि उन्हें एक ग्रन्थ ही मान लिया जा सकता है । जिसकी जन्म पत्री-होती है उसके वंश का इतिहास, वंश-वृक्ष, स्थान, प्रदेश और उत्सवादि वर्णन, नागरिक वर्णन, ग्रह स्थिति, ग्रह भावफल, दशा-निरूपण आदि का सचित्र सोदाहरग निरूपण किया जाता है । इनमें अनेक ऐसे ग्रन्थों के सन्दर्भ भी उद्ध, त मिल जाते हैं जो अब नाम शेष ही रह गये हैं । जयपुर नरेश के संग्रह में महाराजा रामसिंह प्रथम के कुमार कृष्णसिंह की जन्म-पत्री 456 फीट लम्बी और 13 इंच चौड़ाई की है जो अनेक भव्य चित्रों से सुसज्जित और विविध ज्योतिष ग्रन्थों से सन्दर्भित है। यह जन्म-पत्री संवत् 1711 से 1736 तक लिखी गई थी। इसी प्रकार महाराजा माधवसिंह प्रथम की जन्म-पत्री भी है । इसमें यद्यपि चित्र नहीं है परन्तु कछवाहा वंश का इतिहास, जयपुर नगर वगन और सवाई जयसिंह की प्रशस्तियाँ आदि अनेक उपयोगी सूचनाएँ लिखित हैं।
भाद्रपद मास में (बदि 12 से सुदि 4 तक) जैन लोग पाठ दिन का प! पण पर्व मनाते हैं। पाठवें दिन निराहर व्रत रखते हैं। इसकी समाप्ति पर ये लोक एक-दूसरे से वर्ष भर में किए हुए किसी भी प्रकार के बुरे व्यवहार के लिए क्षमा माँगते हैं। ऐसे क्षमावाणी के अवसर पर एक गाँव अथवा स्थान के समस्त संघ की ओर से दूसरे परिचित गाँव के प्रति क्षमापन पत्र' लिखे जाते थे । संघ का मुखिया प्राचार्य कहलाता है अतः वह पत्र प्राचार्य के नाम से ही सम्बोधित होता है । इन पत्रों में सांवत्सरिक-क्षमापना के अतिरिक्त पयूषण-पर्व के दिनों में अपने गाँव में जो धार्मिक कृत्य होते हैं उनकी सूचना प्राचार्य को दी जाती थी तथा यह भी प्रार्थना की जाती थी कि वे उस ग्राम में आकर संघ को दर्शन दें। ऐसे पत्र 'विज्ञप्ति-पत्र' कहलाते हैं। इनके लिखने में गाँव की ओर से पर्याप्त धन एवं समय व्यय किया जाता था। इनका प्राकार-प्रकार भी प्रायः जन्म-पत्री के खरड़ों जैसा ही होता है तथा ये कागज के अतिरिक्त ताड़पत्रादि पर भी लिखे मिलते
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