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154/पाण्डुलिपि-विज्ञान
हैं । कभी-कभी कोई जैन विद्वान मुनि इनमें अपने काव्य भी लिखकर प्राचार्य की सेवा में प्रेषित करते थे। महामहोपाध्याय विनयविजय रचित 'इन्दुदूत', मेघविजय विरचित 'मेघदूत', समस्या-लेख और एक अन्य विद्वान द्वारा प्रणीत चेतोदूत काव्य ऐसे ही विज्ञप्ति पत्रों में पाये गये हैं। सबसे पुराने एक विज्ञप्ति-पत्र का एक ही त्रुटित ताड़पत्रीय-पत्र पाटन के प्राचीन ग्रन्थ भण्डार में मिला है जो विक्रम की तेरहवीं शताब्दी का बताया जाता है।
यद्यपि कागज पर लिखे विज्ञप्ति पत्र 100 हाथ (50 गज = 1.52 फीट) तक लम्बे और 2-13 इंच चौड़े 15वीं शती के जितने पुराने मिले हैं परन्तु कपड़े पर वित ऐसा कोई पत्र नहीं मिला । किन्तु जब इन विज्ञप्ति-पत्रों को जन्म-पत्री जैसे सारड़ों में लिखने का रिवाज था तो अवश्य ही इनके लिए रेजी, तूलिपात या अन्य प्रकार के कपड़े अथवा पट का भी प्रयोग किया ही गया होगा । ऐसे पत्रों का प्राचीन जैन-ग्रन्थ-भण्डारी में अन्वेषण होना आवश्यक है।
प्राचीन समय में पञ्चांग (ज्योतिप) भी कपड़े पर लिखे जाते थे। इनमें देवीदेवता और ग्रह-नक्षत्रादि के चित्र भी होते थे । महाराजा जयपुर के संग्रह में 17वीं शताब्दी के कुछ वहुत जीर्ण पंचांग मिलते हैं । 'राजस्थान प्राच्य-विद्या-प्रतिष्ठान' धार में भी कतिपय इसी तरह के प्राचीन पंचांग विद्यमान हैं।
दक्षिण आन्ध्र प्रदेश आदि स्थानों में इमली खाने का बहुत रिवाज़ है। इनली के बीज या 'चीयाँ' को आग में मेंक कर सुपारी की तरह तो खाते ही हैं परन्तु इसका एक
और भी महत्त्वपूर्ण उपयोग किया जाता था । वहाँ पर इस 'चीयाँ' से लेई बनाई जाती थी। उस लेई को कपड़े पर लगाकर काला पट तैयार किया जाता था। उसकी वही बनाकर व्यापारी लोग उस पर सफेद खड़िया से अपना हिसाब-किताब लिखते थे । ऐसी बहियाँ 'कडितम्' कहलाती थीं। शृंगेरी मठ में ऐसी सैकड़ों बहियाँ मौजूद हैं जो 300 वर्ष तक पुरानी हैं । पाटण के प्राचीन ग्रन्थ-भण्डार में श्री प्रभसूरि रचित 'धर्म विधि' नामक कृति उदयसिंह कृत टीका सहित पाई गयी है जो 13 इंच लम्बे और 5 इंच चौड़े कपड़े के 93 पत्रों पर लिखित है । कपड़े के पत्रों पर लिखित अभी तक यही एक पुस्तक उपलब्ध
कपड़े पर लेई लगाकर काला पट तैयार करके सफेद खड़िया से लिखने के अनुकरण में कई ऐसी पुस्तकें भी मिलती हैं जो कागज पर काला रंग पोत कर सफेद स्याही से लिखी गयी हैं।
इगली के बीज से चित्रकार भी कई प्रकार के रंग बनाते थे। रेशमी कपडे की
अलबेरुनी ने अपने भारत यात्रा विवरण में लिखा है कि उसको नगरकोट के किल में एक राजवंशावली का पता था जो रेशम के कपड़े पर लिखी हुई बताई जाती है। यह वशावली काबुल के शाहियावंशी हिन्दू राजाओं को थी । इसी प्रकार डॉ० युहल र ने
1. मुनि जिनविजय सं. 'विज्ञप्ति त्रिवेणी' पृ. 32 । 2. भारमीय प्राचीन लिपि माला, पृ. 146 ।
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