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152/पाण्डुलिपि-विज्ञान
लिखी हुई है। इस प्रति के पत्र जीर्णता के कारण अब शीर्ण होने लगे हैं परन्तु प्रत्येक सम्भव उपाय से इसकी सुरक्षा के प्रयत्न किए जा रहे हैं । तूलीपातीय
अासाम में चित्रण व लेखन के लिए 'तूलीपात' का प्रयोग भी बहुत प्राचीन काल से होता आया है। इसके निर्माण की कला इन लोगों ने सम्भवतः 'ताइ' और 'शान' लोगों से सीखी थी जो 13वीं शताब्दी में अहोम के साथ यहाँ आये थे ।।
. वास्तव में 'तूलिपात' एक प्रकार का कागज ही होता है जो लकड़ी के गूदे या बल्क से बनाया जाता है । यह तीन रंग का होता है-सफेद, भूरा और लाल । सफेद 'तूलिपात' बनाने के लिए महाइ (Mahai) नामक वृक्ष को चुना जाता है, गहरे भूरे रंग के तूलिपात के लिए यामोन (जामुन) वृक्ष का प्रयोग होता है और लाल 'तूलिपात' जिस वृक्ष के गूदे से बनता है उसका नाम अज्ञात है।
उपर्युक्त वृक्षों की छाल उपयुक्त परिमाण में निकाल ली जाती हैं और फिर उसे खूब कूटते हैं । इससे उनके रेशे ढीले होकर अलग-अलग हो जाते हैं। फिर इनको पानी में इतना उबालते हैं कि एक-एक कण अलग होकर उनका सब कूड़ा-करकट साफ हो जाता है । इन कणों का फिर कल्क बना लेते हैं। इसके बाद अलग-अलग माप वाली आयताकार तश्तरियों में पानी भरकर उस पर उस कल्क को समान रूप से फैला देते हैं और ठण्डा होने को रख देते हैं । ठण्डा होने पर पानी की सतह के ऊपर कल्क एक सख्त और मजबूत कागज के रूप में जम जाता है । साधारणतया तूलिपात पत्र दो पाठों को सीकर तैयार किया जाता है अथवा एक ही लम्बे पाठे को दोहरा करके सी लेते हैं। इससे वह पत्र और भी मजबूत हो जाता है । कागज बनाने का यह प्रकार विशुद्ध भारतीय अतिरिक्त प्रकार है । इस उद्योग के केन्द्र नम्फकि.पाल, मंगलोंग और नारायणपुर में स्थित थे जो आसाम के लखीमपुर जिले के अन्तर्गत हैं । नेफा में कामेंग सीमा क्षेत्र के मोंपा बौद्ध भी इसी प्रकार के कागज का निर्माण करते हैं जो स्थानीय 'सुक्सो' नामक वृक्ष की छाल से बनाया जाता है । पटीय अथवा (सूती कपड़ों पर लिखे) ग्रन्थ
ग्रन्थ लिखने, चित्र आलेखित करने तथा यन्त्र-मन्त्रादि लिखने के लिए रूई से बना सूती कपड़ा भी प्रयोग में लाया जाता है । लेखन क्रिया से पहले इसके छिद्रों को बन्द करने हेतु आटा, चावल का माँड या लेई अथवा पिघला हा मोम लगाकर परत सुखा लेते हैं और फिर अकीक, पत्थर, शंख, कौड़ी या कसौटी के पत्थर आदि से घोंटकर उसको चिकना बनाते हैं। इसके पश्चात् उस पर लेखन कार्य होता है। ऐसे आधार पर लिखे हुए चित्र पट-चित्र कहलाते हैं और ग्रन्थ को पट-ग्रन्थ कहते हैं ।
सामान्यतः पटों पर पूजा-पाठ के यन्त्र-मन्त्र ही अधिक लिखे जाते थे-जैने, सर्वतोभद्र यन्त्र, लिंगतो-भद्र-यन्त्र, मातृका-स्थापन-मण्डल, ग्रह-स्थापन-मण्डल, हनुमत्पताका, सूर्यपताका, सरस्वती पताकादि चित्र, स्वर्ग-नरक-चित्र, सांपनसेनी-ज्ञान चित्र और जैनों के अढाई द्वीप, तीन द्वीप, तेरह द्वीप और जम्बू द्वीप एवं सोलह स्वप्न आदि के नक्शे व चित्र भी ऐसे ही पटों पर बनाए जाते हैं। बाद में मन्दिरों में प्रयुक्त होने वाले पर्दे अर्थात्
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