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ग्रन्थों के अन्य प्रकार
1.
प्राकार के आधार पर :
यहाँ तक हमने ग्रन्थ लिखने के साधन या आधार की दृष्टि से ग्रन्थों के प्रकार बताये । प्राचीनतम हस्तलिखित प्रतियाँ प्रायः लम्बी और पतली पट्टियों के रूप में ही प्राप्त होती हैं, जिनको एक के ऊपर एक रखकर गड्डी बनाकर रखा जाता है। एक-एक पट्टी को पत्र कहते हैं । 'पत्र' नाम इसलिए दिया कि ये पोथियाँ ताड़पत्रों या भूर्जपत्रों पर लिखी जाती थीं। बाद में तत्समान प्रकार के मांडपत्र या कागज बनाए जाने लगे । अव वह 'पत्र' शब्द चिट्ठी के अर्थ में प्रयुक्त होने लगा है। 'पता' भी पत्र से ही निकला है । ग्रतः प्राचीन पुस्तकें छूटे या खुले पत्राकार रूप में ही होती थीं। इनके छोटे-बड़े प्रकार का भेद बताने के लिए जो शब्द प्रयुक्त हैं उनसे पता चलता है कि पोथियाँ पाँच प्रकार की होती थीं । दशवेकालिक सूत्र की हरिभद्रकृत टीका में एवं निशीथचूर्णी आदि में पुस्तकों के 5 प्रकार इस तरह गिनाये गये हैं 1 - ( 1 ) गण्डी, (2) कच्छपी, (3) मुष्टी, (4) सम्पुटफलक और (5) छेदपाटी, छिवाडी या सृपाटिका 12
गण्डी
जो पुस्तक मोटाई और चौड़ाई में समान होकर लम्बी ( Rectangular) होती है वह 'गण्डी' कहलाती है। जैसे पत्थर की 'कतली' होती है उसी प्रकार की यह पुस्तक होती है । ताड़पत्र पर या ताड़पत्रीय ग्राकार के कागजों पर लिखी हुई पुस्तकें 'गण्डी' प्रकार की होती है ।
कच्छपी
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पाण्डुलिपियों के प्रकार / 157
कच्छप या कछुए के आकार की अर्थात् किनारों पर सँकरी और बीच में चौड़ी पुस्तकें कच्छपी कहलाती हैं। इनके किनारे या छोर या तो त्रिकोण होते हैं अथवा गोलाकार |
'गंडी कच्छवि मुट्ठी संyडफलए छिवाडीय' एगे पुत्ययपण, चक्खाण मिणं भवेतस्य ।।
वाल्ल पुहत्त हि, गण्डी पत्थो उ तुल्लगों दीहो । कच्छवि अन्ते तणुओ, मज्झे पिलो मुणेयब्बो चउरं गुलदी हो वा ग्ट्टाहि मुट्ठि पुत्यगो अह्वा । चउरं गुलदीहोच्चि, चउरंगी होइ विन्नेओ ।। सम्पुङगो दुगनाई फलगावोच्छं मेत्ता है । तणुपत्तूसियरुबो, होई छिवाड़ी बुहा वेंति ।। दी होवा हस्सो वा, जो पिहुलो होइ अप्पवाहल्लो । तं मुणियसमयसारा, छिवाडियोत्यं भणतीह ॥
- दश वैकालिक हरिभद्री टीका, पत्र 25
'मुनि पुण्य विजय जी : भारतीय जैन श्रमण संस्कृति अने लेखन कला में पृ० 22 पर 25 वीं पाद टिप्पणी से उद्धत |
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2. मुनि पुण्य विजयजी ने भारतीय जैन श्रमण संस्कृति अने लेखन कला में पृ० 22 की 26 वी पाद टिप्पणी में बताया है कि कुछ विद्वान् छिवाड़ी को सुपटिक मानते हैं । किन्तु मुनिजी वृर्हक्ल्पसूत्र वृत्ति तथा स्थानांग सूत्र टीका आदि मान्य ग्रन्थों के आधार पर छिवाड़ी को 'छेदपाटी' ही मानते हैं ।