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पाण्डुलिपियों के प्रकार/147
का वह प्रचलन पहले पत्र या पत्तों पर ही लिखने से हुआ होगा, क्योंकि पत्ते से ही लिखित 'पत्र' शब्द की उत्पत्ति हुई और बाद में जिस किसी अाधार पर लिखा गया वह भी पत्र ही कहलाया । लिखी हुई भूर्ज की छाल, छाल होते हुए भी पत्र ही कहलाती है और फिर इसका नाम ही भूर्जपत्र पड़ गया । इसमें भी सन्देह नहीं कि भूर्जपत्र पर लिखने की प्रथा बहुत पुरानी है । यह छाल कभी-कभी 60 फुट तक लम्बी निकल आती है । इसको लेखक
आवश्यकतानुसार टुकड़ों में काटकर विविध आकार-प्रकार का कर लेते थे और फिर उस पर तरह-तरह की स्याही से लिखते थे । चिकना तो यह अपने आप ही होता है । मूल रूप में यह छाल एक ओर से अधिक चौड़ी और फिर क्रमशः सँकड़ी होती जाती है और हाथी की सूड की तरह होती है । कवि कालिदास ने अपने 'कुमार सम्भव' काव्य के प्रथम सर्ग (श्लोक 7) में हिमालय का वर्णन करते हुए लिखा है :
न्यस्ताक्षरा धातुरसेन यत्र
भूर्जत्वचः कुञ्जरबिन्दुशोणाः । वजन्ति विद्याधरसुन्दरीणा
___ मनगंलेख क्रिययोपयोगम् ।। (1.7) इस श्लोक में 'भूर्जत्वक', 'धातुरस' और 'कुञ्जर विन्दुशोणाः' शब्द ध्यान देने योग्य हैं । हिमालय में उगने वाले वृक्ष की प्रधानता, उसकी त्वक् अर्थात् छाल का लेखक्रियोपयोग, धातुरस से शोण अर्थात् लाल स्याही का प्रयोग और उस मूल रूप में भूर्ज की छाल का लिखे जाने के बाद अक्षरों से युक्त होकर बिन्दुयुक्त हाथी की सूड के समान दिखाई देनाइसके मुख्य सूचक भाव हैं ।।
कालीदास का समय यद्यपि पण्डितों में विवादास्पद है परन्तु ईसा की दूसरी शताब्दी मे इधर वह नहीं पाता, अतः यह तो मान ही लेना चाहिए कि लिखने की क्रिया का उस समय तक बहुत विकास हो चुका था और "भूर्जत्वक्', जो पत्र लेखन के काम पाने के कारण भूर्जपत्र कहलाने लगा था, कापी प्रचलित हो चुका था । अलबेरुनी ने भी अपनी भारत यात्रा विवरण में 'तूज की छाल' पर लिखने की सूचना दी है।
भूर्जपत्र पर लिखी हुई पुस्तकें या ग्रन्थ अधिकतर उत्तरी भारत में ही पाये गए हैं विशेषतः कश्मीर में । भारत के विभिन्न ग्रन्थ संग्रहालयों में तथा योरप के पुस्तकालयों में जो प्राचीन भूर्जपत्र पर लिखित ग्रन्थ सुरक्षित हैं वे प्रायः काश्मीर से ही प्राप्त किये गए हैं । खोतान में 'धम्मपद' (प्राकृत) का कुछ अंश भूर्जपत्र पर लिखा हुआ मिला है, यही भूर्जपत्र का प्राचीनतम ग्रन्थ माना जाता है । इसका लिपिकाल ईसा की दूसरी शती प्राँका गया है। दूसरा ग्रन्थ 'संयुक्तागमसूत्र' बौद्ध-ग्रन्थ भी डॉ० स्टाइन को खोतान में खड लिक स्थान में मिला । यह ग्रन्थ ईसा की चौथी शताब्दी का लिखा हुआ है। मिस्टर बावर को मिली पुस्तकों का उल्लेख बावर पांडुलिपियाँ (Bower Manuscripts) नामक पुस्तक में है। वे पुस्तकें भी ईसा की छठी शताब्दी के लगभग की हैं और बख्शाली का अंकगणित 8वीं शताब्दी का है । ये पुस्तकें स्तूपों और पत्थरों के बीच में रखी होने से इतने दिन
शाकुन्तल नाटक में भी शकुन्तला दुष्यन्त को प्रेमपत्र लिखते समय कहती है-"लिखने के साधन नहीं हैं तो सखियाँ सुझाव देती हैं कमलिनी के पत्ते पर नखों से गहाकर शब्द बना दो।" यह लेख्न
का नियमित साधन नहीं अपितु. तात्कालिक साधन है। 2. भारतीय प्राचीन लिपिमाला, पृ. 144।
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