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102 / पाण्डुलिपि - विज्ञान
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नागदवन ( नागलीला )
सढ़ि सांवन तिथि पंच चन्द कवियों कही | मढ़यौ ग्रन्थ गुन मूल महा बुधवार है परिहां हाजूं नागदवनि कौं छंद कियो विस्तार है ॥
इसी कवि की इसी 'नागदमन' या 'नागलीला' की एक हस्तलिखित प्रति की सूचना श्री कृष्ण गोपाल माथुर ने दी है । उन्होंने इसका रचनाकाल संवत् 1715 माना है । ऊपर हमने ग्रन्थ में श्राये तिथि विषयक उल्लेख को उद्धृत कर दिया है । इसमें सत्रह से दस पंचर' लिखा हुआ है । इसका अर्थ करते समय यदि हम 'पंच' शब्द पर ही रुक जायेंगे तब तो सं० 1715 मानना होगा जैसा कि श्री माथुर ने माना है किन्तु पूरा शब्द 'दस पंचछः ' है जो कि संधि के कारण 'पंचछर' हो गया है । अतएव हमारी दृष्टि में इसका ठीक र्थ होगा - सत्रह सौ और दस पंच = 50 +6 अर्थात् 1756 1 नागदवन के कुछ पद उदाहरणार्थ प्रस्तुत हैं ।
रिस रोस रहा मुरली धुनिको सुनि नाद गाव तिहुंपुर छांही । व्याल जग्यो जम ज्वाला उठी विख झाल इति ब्रह्ममण्डल माहीं । हरखि जसुधा व्रज की वसुधा जब फुलि फिरयी घर ही घर मांहीं । कंस गिरयों मुरझाइ तबै घरको छतियां मुरली धुनि पांहीं ॥। मुरली धुनि को सुनि सबद चौंकि उठयो तत्काल झटकि पुंछि फन फुकरत उठयो क्रोध को काल ||
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जागो भाग काली धरा भूमि हाली, विखं ज्वालाभाली हरे वृद्ध जाली । कछे बदल संग्राम को वन्नवारी, फन्नफुकरं फफुन झांक अरी | लरी निरख झाला मुरछे मुरायरी, हरख्खी दुचि भइ नाग नारी । हट को वनाने कह्यो वृधवारी, हंसते उठे चेति वाला विहारी । कछे काकली प्रीति वाधै कटैठी, भुजां ठाक ठाठे अखारे मेंहीं । सु सूंघे अचानक कूदे कन्हाई, घिरे कुण्डली मघि बैठे नन्हाई । वनं तालज्जै सिरं सेस मद्धि, द्विपावै तनं तो करें पूछि सद्धी । रिसं रोस सेस बिखं झाल अग्गी, जले झार भासे द्रुमंदाह लग्गी । वुझाव जदुनाथ एह्थयवथ्यं वजै मुठि पंसी जुतीर तत्त । झट वकै फनं पुछि फुकारं भारे, जदुनाथ ज्यां गारहु उदं मारे || नफरी बजै बैस मंजीर मेरं बजे ताल तूंवर घंटा घनेरं बजे दुदुभि सुर नाइ चंगी वजै मोह चंथं दुतारा उपगी । प्रौ संरगी बजी खंजरी सब-नाद उपज्यो सही तो महा रुप स्वादं । बजै संख सुधं प्रसखं अभंगी नरसिंघ वज्जे उछाहं सुअंगी । बजे घुंघरु घू घरी घोर-नीकी कंटताल कंसावरी नाद हीकी । हथं नाल बजे अलगोज भारी, नचे ग्वाल वालं सु प्रानंद कारी ॥
भई वधाई व्रज में जदुकुल हरखि अपार । सकल सभा रछा करें काली नाथ न हार ।।
1. बीणा, ( इन्दौर), अप्रैल, 1972, पृ. 53
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