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126, पाण्डुलिपि-विज्ञान
कि इस कारखाने में बनी पहली पुस्तकों की तरह घसीट ब्राह्मी में लिखी असली हस्तलिपियों के कुछ टुकड़े दंदा-उइलिक में इब्राहीम को पहले कभी मिल गये थे और यह काम इन जालसाजों ने कुछ इस तरह किया था कि यूरोप के अच्छे से अच्छे विशेषज्ञ तक को आसानी से सफलतापूर्वक धोखा दिया जा सकता था। यह डॉ० हेन्र्ले की 'मध्य एशियाई पुरावस्तुओं की रिपोर्ट' से प्रमाणित है, जो पहले की सामग्री पर आधारित थी। यह पहले की सामग्री' इस्लाम अखुन के कारखाने में बनी अन्य वस्तुओं के साथ अब ब्रिटिश म्यूजियम लंदन के हस्तलिपि-विभाग के जाली कागजात के अनुभाग में सुरक्षित है। इसी प्रकार की एक 'प्राचीन खत्तन की हस्तलिपि' की अनुलिपि (फैक्सि मिली) डॉ० स्वेन हेडिन की कृति 'थ्र एशिया' के जर्भन संस्करण में सुरक्षित है जो इस्लाम इब्राहीम आदि की आधुनिक फैक्ट्री में प्राचीन रूप में सम्पादित हुई ।
काणगर में जालसाजी का यह बाजार गर्म होने तथा हस्तलिपियों की कीमत वगैर मीनमेख के कल्पनातीत मिलने से अन्यत्र के जालसाज भी वहाँ जा पहुँचे । इनमें सरगना लद्दाख और कश्मीर का एक फरेबी बनरुद्दीन था। उसका काम तो बहुत साफ न था, पर 'प्राचीन पुस्तकों की संख्या का परिमाण सहसा काफी बढ़ गया । कि उन्हें खरीदने वाले यूरोपियन उन अक्षरों को पढ़ या उनका वास्तविक प्राचीन लिपि से मिलान नहीं कर सकते थे, अत: जालसाजों ने भी जाली अक्षरों का मूल से मिलान कर अपने करतब में सफाई लाने की कोशिश नहीं की।
हाथ से लिख कर फरेब से हस्तलिपियाँ बनाने का काम बड़ी मेहनत से सम्पन्न होता था। इसी से जालसाजी के उन माहिरों ने काम हल्का और आसान करने के लिए कारखाना ईजाद किया। अब वे लकड़ी के ब्लॉकों से बार-बार छापे मार कर पुस्तकों का निर्माण करने लगे। इससे उनके काम में बड़ी सुविधा हो गयी। इन ब्लॉकों को बनाने में भी किसी प्रकार की कठिनाई नहीं होती थी, क्योंकि चीनी, तुर्किस्तान में लकड़ी के ब्लॉकों से छपाई ग्राम बात थी । 'प्राचीन पुस्तकों' की इस प्रकार से छपाई 1896 में शुरू हुई । नयी सिरजी लिपि की भिन्नता ने विद्वानों की कल्पना को जगाया और उसकी व्याख्या करने के लिए बड़े परिश्रम से उन्होंने नये फार्मूले रचे ।
हस्तलिपि 'प्राचीन' बनाने में जिन उपायों का अवलम्बन किया जाता था, इस्लाम अखुन ने उसका भी सुराग दिया। 'ब्लाक-प्रिंट' अथवा हस्तलिपि तैयार करने के लिए कागज भी विशेष रूप से तैयार किया जाता था और विशेष विधि से उसे पुराना भी कर लिया जाता था । तुर्किस्तान कागज के उद्योग का प्रधान केन्द्र होने के कारण खुत्तन जालसाजों के लिए आदर्श स्थान बन गया था। कारण कि वहाँ उन्हें मनोवांछित प्रकार और परिमाण का कागज बड़ी सुविधा से प्राप्त हो सकता था । 'तोगरुगा' के जरिये कागज पहले पीले या हल्के ब्राउन रंग में रंग लिया जाता था। तोगरुगा तोगरक नामक वृक्ष से प्राप्त किया जाता था, जो पानी में डालते ही घुल जाता था और घुलने पर दाग छोड़ने वाला द्रव बन जाता था ।
रंगे कागज के ताव पर जब लिख या छाप लिया जाता तब उसे धुंए के पास टांग दिया जाता था। धुंए के स्पर्श से उसका रूप पुराना हो जाया करता था । अनेक बार इससे कागज कुछ झुलस भी जाता था। जैसा कि कलकत्ते में सुरक्षित कुछ 'प्राचीन पुस्तकों' से प्रमाणित है। इसके बाद उन्हें पत्रवत् बाँध लिया जाता था। इस जिल्दसाजी
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