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54 / पाण्डुलिपि - विज्ञान
स्याही भी बनाई जाती रही है। पक्की और कच्ची स्याही के अन्तर का एक रोचक ऐतिहासिक कथांश 'भारतीय प्राचीन लिपिमाला' में डॉ० प्रोझा ने दिया है । वह वृत्त द्वितीय राजतरंगिणी के कर्त्ता जोनराज द्वारा दिया गया है और उनके अपने ही एक मुकदमें से सम्बन्धित है ।
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जनराज के दादा ने एक प्रस्थ भूमि किसी को बेची । उनकी मृत्यु हो जाने पर खरीदने वाले ने जाल रचा । वैनामे में था - - 'भूप्रस्थमेकं विक्रीतम्' । खरीदने वाले ने उसे 'भूप्रस्थ दशकं विक्रीतम्' कर दिया । जोनराज ने यह मामला राजा जैनोल्लाभदीन के समक्ष रखा । उसने उस भूर्ज-पत्र को पानी में डाल दिया । फल यह हुआ कि नये अक्षर धुल गए और पुराने उभर आये, जोनराज जीत गए। " ( जोनराजकृत राजतरंगिणी श्लोक 1025-37 ) । प्रतीत होता है कि नये अक्षर कच्ची स्याही से लिखे गये थे, पहले अक्षर पक्की स्याही के थे । भोजपत्र को पानी में धोने से पक्की स्याही नहीं धुलती,, वरन् और अधिक चमक उठती है । कच्ची-पक्की स्याहियों के भी कई नुस्खे मिलते हैं :
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"भारतीय जैन श्रमण संस्कृति अने लेखन कला" में बताया है कि पहले ताड़-पत्र पर लिखा जाता था । तीन-चार सौ वर्ष पूर्व ताड़-पत्र पर लिखने की स्याही का उल्लेख मिलता है । ये स्याहियाँ कई प्रकार से बनती थीं- “भारतीय जैन श्रमरण संस्कृति अने लेखन कला' में ये नुस्खे दिये हुए हैं जो इस प्रकार हैं :
प्रथम प्रकार :
सहवर-भृंग त्रिफलः, कासीसं लोहमेव नीली च
समकज्जल - बोलयुता, भवति मषी ताडपत्राणाम् ||
व्याख्या - सहवरेति कांटासे हरी ओ ( घेमासो) भृगेति भांगुर । त्रिफला प्रसिद्धैव । कासीसमिति कसीसम्, येन काष्ठादि रज्यते । लोहमिति लोहचूर्णम् । नीलीति गली निष्पादको वृक्ष: तेंद्ररसः । रसं विना सर्वेषामुत्कल्य क्वाथः क्रियते स च रसोऽपि समवर्तित कज्जल- बोलयोर्मध्ये निक्षिप्यते, ततस्ताडपत्रमषी भवतीति । यह स्याही ताम्बे की कढ़ाही में खूब घोटी जानी चाहिए 12
दूसरा प्रकार :
काजल पा (पो) इण बोल (बीजा बोल), भूमिलया या जल मोगरा ( ? ) थोड़ा पारा, इन्हें ऊष्ण जल में मिला कर ताँबे की कढ़ाई में डाल कर सात दिन ऐसा घोटें कि सब एक हो जाय । तब इसकी बड़ियाँ बना कर सुखा लें। स्याही की आवश्यकता पड़ने पर बड़ियों को आवश्यकतानुसार गर्म पानी में खूब मसल कर स्याही बनालें । इस स्याही से लिखे अक्षर रात में भी दिन की भाँति ही पढ़े जा सकते हैं ।
शब्द 'मेला' नहीं 'मेला' ही है जो मेल से बना है । स्याही में विविध वस्तुओं का मेल होता है । स्याही - स्याहकाला से व्युत्पत्र है, पर इसका अर्थ-विस्तार हो गया है ।
- व्हूलर, पृ. 146 तथा डॉ. राजबली पांडेय, पृ. 84. निआर्कष और क्यू. कर्दियस जैसे यूनानी लेखकों की साक्षियों से यह सिद्ध है कि भारतीय कागज और कपड़े पर स्याही से ही लिखते थे । यह साक्षी 4थी शती ई. पू. की है। 1. भारतीय प्राचीन लिपिमाला, पृ. 155 ( पाद टिप्पणी) ।
2. भारतीय जैन श्रमण संस्कृति अने लेखन कला, पृ. 38 ।
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