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84/पाण्डुलिपि-विज्ञान
अने माफक लाने ते नो ते प्रो पुस्तक लखवा माटे उपयोग करता।"1 इस पुस्तक में काश्मीरी कागज की बहुत प्रशंसा की है। यह कागज बहुत कोमल और मजबूत होता था। इस विवरण में मेवाड़ के घोसुन्दा के कागज का उल्लेख है, पर जयपुर में सांगानेर का सांगानेरी कागज भी बहुत विख्यात रहा है ।
कागज के सम्बन्ध में श्री गोपाल नारायण बहुरा की नीचे दी हुई टिप्पणी भी ज्ञानवर्द्धक हैं :
___ "स्यालकोट अकबर के समग्र में ही एक प्रसिद्ध विद्या-केन्द्र बन गया था। वहाँ पर लिखने-पढ़ने का काम खूब होता था और कागज व स्याही बनाने के उद्योग भी वहाँ पर बहत अच्छे चलते थे । स्यालकोट का बना हा बढ़िया कागज 'मानसिंही कागज' के नाम से प्रसिद्ध था । यहाँ पर रेशमी कागज भी बनता था। इस स्थान के बने हुए कागज मजबूत, साफ और टिकाऊ होते थे। मुख्य नगर के बाहर तीन 'ढानियों' में यह उद्योग चलता था और यहाँ से देश के अन्य भागों में भी कागज भेजा जाता था। दिल्ली के बादशाही दफ्तरों में प्रायः यहाँ का बना हुअा कागज ही काम में प्राता था।
इसी प्रकार कश्मीर में भी कागज तो बनते ही थे, साथ ही वहाँ पर स्याही भी बहुत अच्छी बनती थी। कश्मीरी कागजों पर लिखे हुए ग्रन्थ बहुत बड़ी संख्या में मिलते हैं। जिस प्रकार स्यालकोट कागज के लिए प्रसिद्ध था उसी तरह कश्मीर की स्याही भी नामी मानी जाती थी।
राजस्थान में भी मुगलकाल में जगह-जगह कागज और स्याही बनाने के कारखाने थे। जयपुर, जोधपुर, भीलवाड़ा, गोगूदा, बूदी, बांदीकुई, टोटाभीम और सवाईमाधोपुर आदि स्थानों पर अनेक परिवार इसी व्यवसाय से कुटुम्ब पालन करते थे । जयपुर और प्रास-पास के 55 कारखाने कागज बनाने के थे, इनमें सांगानेर सबसे अधिक प्रसिद्ध था और यहां का बना हुआ कागज ही सरकारी दफ्तरों में प्रयोग में लाया जाता था। 200 से 300 वर्ष पुराना सांगानेरी कागज और उस पर लिखित स्याही के अक्षर कई बार ऐसे देखने में आते हैं मानो आज ही लिखे गये हों।
शहरों और कस्बों से दूरी पर स्थित गाँवों में प्रायः बनिये और पटवारी लोगों के घरों व दुकानों पर 'पाठे और स्याही' मिलते थे। सांगानेरी मोटा कागज 'पाठा' कहलाता था, अब भी कहते हैं । 'पाठा' सम्भवतः 'पत्र' का ही रूपान्तर हो। सेठ या पटवारी के यहाँ ही अधिकतर गाँव के लोगों का लिखा-पढ़ी का काम होता था। कदाचित् कभी उनके यहाँ लेखन सामग्री न होती तो वह काम उस समय तक के लिए स्थगित कर दिया जाता जब तक कि शहर या पास के बड़े कस्बे या गाँव से 'स्याही' पाठे' न पा जावें । नुकता या विवाह आदि के लिए जब सामान खरीदा जाता तो 'स्याही-पाठा' सबसे पहले खरीदा जाता था।"
तात्पर्य यह है कि जो हस्तलेख हाथ में पायें उनके लिप्यासन की प्रकृति और प्रकार का ठीक-ठीक उल्लेख होना चाहिये ।
1. भारतीय जैन श्रमण संस्कृनि अने लेखन कला, पृ. 29-30 । 2. Surcar, J.-Topography of the Mughal Empire, p. 25. 3. Ibid, p.112.
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