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86/पाण्डुलिपि-विज्ञान
ग्रन्थ' । पत्रों की संख्या के साथ यह भी देखना होगा कि (क) पत्र संख्या का क्रम ठीक है, कोई इधर-उधर तो नहीं हो गया है ।
(ख) कोई पत्र या पन्ने कोरे छोड़े गये हैं क्या ? (ग) उन पर पृष्ठांक कैसे पड़े हुए हैं ? (घ) पन्ने व्यवस्थित हैं और एक माप के हैं या अस्त-व्यस्त और भिन्न-भिन्न मापों
विशेष : 1. इसी के साथ यह बताना भी आवश्यक होता है कि लिखावट कैसी हैं-सुपाठ्य है, सामान्य है या कुपाठ्य है कि पढ़ी ही नहीं जाती । सुपाठ्य है तो सुष्ठ भी है या नहीं । लिपि सौष्ठव के सम्बन्ध में ये श्लोक आदर्श प्रस्तुत करते हैं :
"अक्षराणि समशीर्षाणि बर्तुलानि धनानि च । परस्परमलग्नानि, यो लिखेत् स हि लेखक : । समानि समशीर्षाणि, बतुलानि धनानि च । मात्रासु प्रतिबद्धानि, यो जानाति स लेखक : । "शीर्पोपेतान् सुसम्पूर्णान्, शुभ श्रेणिगतान् समान्
अक्षरान् वै लिखेद् यस्तु, लेखकः स वरः स्मृतः ॥" यथा टेसीटरी "अनेक स्थानों पर पढ़ा नहीं जाता क्योंकि खराब स्याही के प्रयोग के कारण पत्र आपस में चिपक गये हैं।
2. यह भी बताना होता है कि सम्पूर्ण ग्रन्थ में एक ही हाथ की लिखावट है या लिखावट-भेद है । लिखावट में भेद यह सिद्ध करता है कि ग्रन्थ विभिन्न हाथों से लिखा गया है, यथा : टेसीटरी : समय-समय पर अलग-अलग लेखकों के हाथ से लिपिबद्ध किया हुआ
(ग) अलंकरण-सज्जा एवं चित्र
(आ) सज्जा की दृष्टि से इन दोनों बातों की सूचना भी यहीं देनी होगी कि ग्रथ अलंकरणयुक्त है या सचित्र है । अलंकरण केवल सुन्दरता बढ़ाने के लिए होते हैं, विषयों से उनका सम्बन्ध नहीं रहता । पशु-पक्षी, ज्यामितिक रेखांकन, लता-बेल एवं फल-फूल की प्राकृतियों से ग्रन्थ सजाये जाते हैं। अतः यह उल्लेख करना आवश्यक होगा कि सजावट की शैली कैसी है। सजावट के विविध अभिप्रायों या मोटिफों का युग-प्रवृत्ति से भी सम्बन्ध रहता है, अतः इनसे काल-निर्धारण में भी कुछ सहायता मिल सकती है । साथ ही, चित्रालंकरण से देश और युग की संस्कृति पर भी प्रकाश पड़ सकता है । यह सिद्ध है कि मध्ययूग में चित्रकला का स्वरूप ग्रन्थ-चित्रों (Miniatures) के द्वारा ही जान सकते हैं । जो भी हो, पहले अलंकरण से सजावट की स्थिति का ज्ञान कराया जाना चाहिये ।
तब, ग्रन्थ चित्रों का परिचय भी अपेक्षित है । क्या चित्र पुस्तक के विषय के अनुकूल है, क्या वे विषय के ठीक स्थल पर दिये गये हैं ? वे संख्या में कितने हैं ? कला का स्तर कैसा है ?
1. परम्परा (28-29), पृ. 112 । 2. वही, पृ. 1121
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