________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
पांडुलिपि-प्राप्ति और तत्सम्बन्धित प्रयत्न : क्षेत्रीय अनुसंधान/95 इस विशेष कालावधि के विवरण में पुस्तकों के विवरणों को अकारादि क्रम से प्रस्तुत करने में सुविधा रहती है ।
कुछ अनुक्रमणिकाएँ दी जानी चाहिएँ । 1. ग्रन्थ नामानुक्रमणिका 2. लेखक नामानुक्रमणिका
लेखे-जोखे में रचना काल और लिपिकाल दोनों की कालक्रमानुसार उपलब्ध रचनाओं और विषयवार ग्रन्थों की सूचना भी दी जानी चाहिये। इसके लिए निम्न प्रकार की तालिका बनायी जा सकती है :
भक्ति विषय वर्ग
रीति काल
र० काल ग्रन्थ | लिपिकाल र० काल ग्रन्थ लिपिकाल यादि
संख्या ग्रन्थ सं० । संख्या । ग्रन्थ सं० 10011 1010 1020 1030 .
-
इस तालिका द्वारा शताब्दी क्रम से उपलब्ध ग्रन्थ-संख्या का ज्ञान हो जाता है।
एक तालिका यहाँ 'हिन्दी हस्तलेखों' की खोज की तेरहवीं 'विवरणिका' से उदाहरणार्थ उद्धृत की जाती है : शतियाँ 12वीं | 13वीं | 14वीं | 15वीं | 16वीं | 17वीं | 18वीं | 19वीं अज्ञात योग
2 |- -17 | 36 | 2011 209 1 4271 394 (1278
इस तालिका द्वारा शताब्दी क्रम से उपलब्ध ग्रन्थ संख्या का ज्ञान हो जाता है। इससे यह स्पष्ट है कि 13वीं विवरणिका के वर्षों में 12वीं शती से पूर्व की कोई कृति नहीं मिली थी। 12वीं शती की 2 कृतियाँ मिलीं। फिर दो शताब्दियाँ शून्य रहीं।
इस तालिका से यह विदित हो जाता है कि किस काल में किस विषय की कितनी पुस्तकें उपलब्ध हुई हैं। इस काल-क्रम से प्राचीनतम पुस्तक की ओर ध्यान जाता है । काल-क्रम में जो पुस्तक जितनी ही पुरानी होगी उतनी ही कई दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण मानी जायेंगी । इससे यह भी विदित होता है कि काल-क्रम में विविध शताब्दियों में उपलब्धियों का अनुपात क्या रहा?
अब तक के अज्ञात लेखकों और अज्ञात कृतियों का विशेष परिचय प्राप्त हो सके तो उसे प्राप्त करके उन पर कुछ विशेष टिप्पणियाँ देना भी लाभप्रद होता है।
काशीनागरी प्रचारिणी सभा की खोज रिपोर्टों में जो क्रम अपनाया गया है, वह इस प्रकार है : (1) में विवरणिका, जिसमें खोज के निष्कर्ष दिये जाते हैं। फिर परिशिष्ट एवं रचयिताओं का परिचय । (2) में ग्रन्थों के विवरण, (3) में अज्ञात रचनाकारों के
1. इस 'काल-क्रम' का आरम्भ उस प्राचीनतम मन्/संवत् से करना चाहिये, जिसकी कृति हमें खोज में
मिल चुकी हो।
For Private and Personal Use Only