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60/पाण्डुलिपि-विज्ञान
नीली स्याही का भी प्रचलन हुआ, हरी और पीली भी उपयोग में लाई गई । हरी तथा पीली स्याही का भी उपयोग हुआ पर अधिकांशतः जैन ग्रन्थों में ।
अोझाजी ने बताया है कि सूखे हरे रंग को गोंद के पानी में घोल कर हरी जंगाली और हरिताल से पीली स्याही भी लेखक लोग बनाते हैं । सुनहरी एवं रूपहरी स्याही
सोने और चाँदी की स्याही का उपयोग भी पाश्चात्य देशों में तथा भारत में भी हुआ है। साहित्य में भी प्राचीन काल के उल्लेख मिलते हैं। सोने-चांदी में लिखे ग्रन्थ भी मिलते हैं । राजे-महाराजे और धनी लोग ही ऐसी कीमती स्याही की पुस्तकें लिखवा सकते थे । ये स्याहियाँ सोने और चाँदी के वरको से बनती थीं। वरक को खरल में डाल कर धव के गोंद के पानी के साथ खरल में खूब घोंटते थे। इससे वरक का चूर्ण तैयार हो जाता था। फिर साकर (शक्कर) का पानी डाल कर उसे खूब हिलाते थे । चूर्ण के नीचे बैठ जाने पर पानी निकाल देते थे । इसी प्रकार तीन-चार बार धो देने से गोंद निकल जाता था। अब जो शेष रह जाता था वह स्याही थी।
___ सोने और चांदी की स्याही से लिखित प्राचीन ग्रन्थ नहीं मिलते । प्रोझाजी ने अजमेर के कल्याणमल ढड्ढा के कुछ ग्रन्थ देखे थे, ये अधिक प्राचीन नहीं थे । हां, चाँदी की स्याही में लिखा यन्त्रावचूरि ग्रन्थ 15वीं शती का उन्हें विदित हुआ था।
भारतीय जैन श्रमरण संस्कृति अने लेखन कला में अनुष्ठानादि के लिए जन्त्र-मन्त्र लिखने के लिए अष्ट-गन्ध एवं यक्ष कर्दम का और उल्लेख किया गया है । अण्ट-गन्ध दो प्रकार से बनायी जाती है :
एक : 1 अगर, 2. तगर, 3. गोरोचन, 4. कस्तूरी, 5. रक्त चन्दन, 6. चन्दन, 7. सिन्दूर, और 8. केसर को मिला कर बनाते हैं।
दो : 1. कपूर, 2. कस्तूरी, 3. गोरोचन, 4. सिदरफ, 5. केसर, 6. चन्दन, 7. अगर, एवं 8. गेहूला–इससे मिला कर बनाते हैं।
यक्ष कर्दम में 11 वस्तुएं मिलाई जाती हैं : चन्दन, केसर, अगर, बरास, कस्तूरी, मरचकंकोल, गोरोचन, हिंगलो, रतंजणी, सोने के वरक और अंवर । चित्र रचना और रंग
'ऐनसाइक्लोपीडिया अमेरिकाना' में बताया गया है कि सचित्र पांडुलिपि उस हस्तलिखित पुस्तक को कहते हैं जिसके पाठ को विविध चित्राकृतियों से सजाया गया हो और सुन्दर बनाया गया हो । यह सज्जा रंगों से या सुनहरी और कभी-कभी रूपहली कारीगरी से भी प्रस्तुत की जाती है । इस सज्जा में प्रथमाक्षरों को विशदतापूर्वक चित्रित करने से लेकर विषयानुरूप चित्रों तक का आयोजन भी हो सकता था, या सोने और चांदी से
यह हरिताल, हडताल गलत लिखे शब्द या अक्षर पर फेर कर उस अक्षर को लुप्त किया जाता था। इसी से मुहावरा भी बना 'हड़ताल फेरना-नष्ट कर देना।' भारतीय प्राचीन लिपिमाला, पृ.44। भारतीय जैन श्रमण संस्कृति अने लेखन कला, पृ.44 । Encyclopaedia Americana (Vc! 18), p. 242.
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