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64/पाण्डुलिपि-विज्ञान ग्रन्थ-रचना के काम के अन्य उपकरण : रेखापाटी या समासपाटी और कांबी
'रेखापाटी' का विवरण अोझाजी ने भारतीय प्राचीन लिपिमाला में दिया है। लकड़ी की पट्टी पर या पट्टे पर डोरियाँ लपेट कर और उन्हें स्थिर कर समानान्तर रेखाएं बनाली जाती हैं । इस पर लिप्यासन या कागज रख कर दबाने से समानान्तर रेखाओं के चिह्न उभर आते हैं । इस प्रकार पांडुलिपि लिखने में रेखाएं समानान्तर रहती
यही काम कांबी या कंबिका से लिया जाता है । यह लकड़ी की पटरी जैसी होती है। इसकी सहायता से कागज पर रेखाएं खींची जाती थीं। कांबी का एक अन्य उपयोग होता था । पुस्तक पढ़ते समय हाथ फेरने से पुस्तक खराब न हो, इस निमित्त कांबी (सं० कंबिका) का उपयोग किया जाता था । इसे पढ़ते समय अक्षरों की रेखाओं के सहारे रखते थे, और उस पर उंगली रख कर शब्दों को बताते जाते थे । यह सामान्यतः बाँस की चपटी चिप्पट होती थी। यों यह हाथी दांत, अकीक, चन्दन, शीशम, शाल वगैरह की भी बनाली जाती थी। डोरा : डोरी
ताड़पत्र के ग्रन्थों के पन्ने अस्तव्यस्त न हो जायं इसलिए एक विधि का उपयोग किया जाता था । ताड़पत्रों की लम्बाई के बीचोंबीच ताड़पत्रों को छेद कर एक डोरा नीचे से ऊपर तक पिरो दिया जाता था। इस डोरे से सभी पत्र नत्थी होकर यथास्थान रहते थे । लेखक प्रत्येक पन्ने के बीच में एक स्थान कोरा छोड़ देता था । यह स्थान डोरे के छेद के लिए ही छोड़ा जाता था । ताड़पत्रों के इस कोरे स्थान पर की पावृत्ति हमें कागजों पर लिखे ग्रन्थों में भी मिलती है । अब यह लकीर पीटने के समान है, अनावश्यक है । हाँ, लेखक का कुछ कौशल अवश्य लक्षित होता है कि वह इस विधि से लिखता है वह स्थान छूटा हुअा भी सुन्दर लगता है। ग्रन्थि
___- डोरी से ग्रन्थ या पुस्तक के पन्नों को सूत्र-बद्ध करके इन डोरों को काष्ठ की उन पट्टिकाओं में छेद करके निकाला जाता था, जो पुस्तक की लम्बाई-चौड़ाई के अनुसार काट कर ग्रन्थ के दोनों ओर लगाई जाती थीं । इनके ऊपर डोरियों को कस कर ग्रन्थि लगाई जाती थी। यह प्राचीन प्रणाली है । हर्ष चरित में सूत्रवेष्टनम् का उल्लेख मिलता है । इन डोरों को उक्त काष्ठपाटी में से निकाल कर ग्रन्थि या गाँठ देने के लिए विशेष प्रणाली अपनाई गई-लकड़ी, हाथीदाँत, नारियल के खोपड़े का टुकड़ा लेकर उसे गोल चिपटी चकरी 1. भारतीय प्राचीन लिपिमाला, पृ. 157 । 2. वही, पृ. 1581 3. भारतीय जैन श्रमण सस्कृति अने लेखन कला, पृ० 19।
(93) Wooden covers, cut according to the siza of the sheets, were placed on the Bhurja and Palm leaves, which had been drawn on strings, and rhis is still the custom even with the paper MSS. In Southern India the covers are mostly pierced by holes, through which the long strings are passed. The latter are wound round the covers and knotted.
-Buhler, G.-Indian Palaeography.p. 147.
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