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पांडुलिपि-प्राप्ति और तत्सम्बन्धित प्रयत्न : क्षेत्रीय अनुसन्धान/69
है, जिनके न जानने से मनुष्य दुःखी रहते हैं तो वे उसकी सहायता करने के लिए मदा प्रस्तुत रहेंगे । व्युत्पन्न-मति और तत्परबुद्धि भी बड़ी सहायक सिद्ध हुई है।
काशी-नागरी-प्रचारिणी सभा के एक ग्रन्थ-खोजकर्ता मेरे मित्र थे। उनकी सफलता का एक बड़ा कारण यही था कि वे हस्तरेखा विज्ञान भी जानते थे और कुछ वैद्यक भी जानते थे । आकर्षक ढंग से लच्छेदार रोचक बातें करना भी उन्हें पाता था। यह भी एक बहुत बड़ा गुण है।
हस्तलिखित पुस्तकों की खोज का ऊपर दिया गया विवरण यह बताता है कि पांडुलिपियों का संग्रह किसी संस्थान या किसी पांडुलिपि विभाग के लिए किया जा रहा है। ऊपर दी गई पद्धति से निजी संग्रहालय के लिए भी पांडुलिपियाँ प्राप्त की जा सकती हैं ।
व्यवसायी माध्यम-कुछ व्यक्ति व्यवसाय के लिए, अपने लिए अर्थ-लाभ की दृष्टि से स्वयं अनेक विधियों से जहाँ-तहाँ से ग्रन्थ प्राप्त करते हैं, मुफ्त में या बहुत कम दामों में खरीदकर वे संस्थाओं को और व्यक्तियों को अधिक दामों में बेच देते हैं । राजस्थान में राजाओं और सामन्तों की स्थिति बिगड़ने से उनके संग्रहों से हस्तलेख इन व्यवसायियों ने प्राप्त किये थे। कभी-कभी ये ग्रन्थ ऐसे विद्वानों, कवियों और पण्डितों के घरों में भी मिलते हैं जिनकी संतान उन ग्रन्थों का मूल्य नहीं समझती थी, या आर्थिक संकट में पड़ गयी थी। व्यवसायी इनसे वे ग्रन्थ प्राप्त कर लेते हैं और संस्थानों को बेच देते हैं । ऐसे व्यवसायियों मे भी ग्रंथ प्राप्त किये जा सकते हैं ।
साभिप्राय खोज-खोज के सामान्य रूपों की चर्चा की जा चुकी है। इनके तीन प्रकार बताये जा चुके हैं--1. शौकियासंग्रह, जो प्रायः निजी संग्रहालयों का रूप ले लेते हैं । खुदाबख्श पुस्तकालय का उल्लेख हम कर चुके हैं । 2. संस्था के निमित्त वेतनभोगी एजेण्ट द्वारा, जैसे-नागरी-प्रचारिणी-सभा ने कराया। दान की भावना से भी ग्रन्थ मिले हैं। कुछ व्यक्तियों ने अपने निजी संग्रहालय भावी सुरक्षा की भावना से किसी प्रतिष्ठित संस्थान को भेंट कर दिये हैं । 3. व्यवसायी के माध्यम से संग्रह ।
सामान्य खोज तो होती है, पर कभी-कभी साभिप्राय खोज भी होती है । यह खोज किसी या किन्हीं विशेष हस्तलेखों के लिए होती है । इन खोजों का इतिहास कभी-कभी बहुत रोचक होता है । साभिप्राय खोज की दृष्टि से पहले यह जानना अपेक्षित होता है कि जिस ग्रन्थ को आप चाहते हैं वह कहाँ है ? इसके लिए आप विविध संग्रहालयों में जाकर सूचियाँ या आगारों का अवलोकन करते हैं, कुछ जानकारी से पूछते हैं । मुल्ला दाऊद कृत 'चन्दायन' को प्राप्त करने का इतिहास लें । आगरा विश्वविद्यालय के क० मु० हिन्दी तथा भाषाविज्ञान विद्यापीठ ने प्रारम्भ में ही निर्णय लिया कि 'चन्दायन' का सम्पादन किया जाय ।
यह सुझाव डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल ने दिया था। उनके सुझाव पर शिमला के राष्ट्रीय संग्रहालय को लिखा गया, उसका कुछ अंश वहीं पर था। उसकी फोटोस्टेट प्रतियाँ मंगवायीं गयीं । विदित हुआ कि इसी ग्रन्थ के कुछ अंश पाकिस्तान में उनके लाहौर के राष्ट्रीय आगार में हैं । उनसे भी फोटोस्टेट प्रतियाँ प्राप्त की गयीं। और भी जहाँ-तहाँ संपर्क किये गये । तब जितने पृष्ठ मिले उन्हें ही सम्पादित किया गया । पर, यह आवश्यकता रही कि इसकी पूरी व्यवस्थित प्रति कहीं से प्राप्त की जाय । हिन्दी विद्यापीठ को तो वह प्राप्त नहीं हो सकी परन्तु डॉ. परमेश्वरी लाल गुप्त उसे प्राप्त कर सके । कैसे प्राप्त की,
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